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त्रैवर्णिकाचार ऐसा कहना अयुक्त नहीं है। यदि आपका यह कहना हो कि ऐसे कार्य करनेके अनन्तर ही नरकको चला जाना चाहिए तो जिसको आप महापापी समझते हैं वह भी क्या महापापके अनन्तर ही नरक चला जाता है ? यदि कहेंगे कि नियम नहीं तो बस ठीक है, यहां भी ऐसा क्यों नहीं मान लेते कि उसी समय चला जाय या कालान्तरमें चला जाय, कोई नियम नहीं । ग्रन्थकारका सिर्फ आशय इतना ही है कि मर्यादा उलंघन करना अच्छा नहीं है, जिसका फल नरकादि गतियों में जाना है । इसमें उनने कर्म-फिलासफीको उठाकर कैसे ताकमें रख दिया है सो कुछ समझमें ही नहीं आता। जो वात युक्तियुक्त है उनमें भी व्यर्थकी ऊटपटांग शंकायें उठाई जाती हैं । यह सब कर्मफिलासफीके न समझनेका ही फल प्रतीत होता है। पुत्रनिश्चयः-स्वाङ्गजः पुत्रिकापुत्रो दत्तः क्रीतश्च पालितः ।
भगिनीजः शिष्यश्चेति पुत्राः सप्त प्रकीर्तिवाः ॥९॥ अपनेसे उत्पन्न हुआ पुत्र, पुत्रीका पुत्र, दत्तक पुत्र, खरीदा हुआ पुत्र, पाला हुआ पुत्र, मांजा और शिष्य, ऐसे सात प्रकारके पुत्र होते हैं ॥ ९ ॥
सूत्रं वलं हस्तमानं चत्वारिंशच्छताधिकम् । तत्रैगुण्यं वहिवृत्त्याऽन्तर्दृत्त्या त्रिगुणं पुनः ॥ १० ॥ गृहभायां समादाय स्वयं हस्तेन कर्तयेत् ।
तेन सूत्रेण संस्कार्य शुभ्रं यज्ञोपवीतकम् ॥ ११॥ रुईके एक सौ चालीस हाथ लंबे सूतको तिहराकर उसे बाहरकी तरफसे बंटे। फिर उसे तीन लड़ाकर भीतरकी तरफसे बटे । यज्ञोपवीतके सूतको गृहपत्नी स्वयं अपने हाथसे काते । उसी सूतका सफेद यज्ञोपवीत बनावे ॥ १०-११ ॥
नान्दीश्राद्धे कृते पश्चादुल्कापाताग्निवृष्टिषु । सूतकादिनिमित्तेषु न कुर्यान्मौजीवन्धनम् ॥ १२ ॥ यस्य माङ्गलिक कार्य तस्य माता रजस्वला । तदा न तत्सकर्तव्यमायुःक्षयकरं हि तत् ॥ १३ ॥ मात्रा सहैव भुञ्जीत ऊर्ध्वं माता रजस्वला । व्रतवन्धः प्रशस्तः स्यादित्याह भगवान्मुनिः ॥ १४ ॥ नान्दीश्राद्धे कृते पश्चात्कन्यामाता रजस्वला।
कन्यादानं पिता कुर्यादित्यादि जिनभाषितम् ॥ १५ ॥ नान्दीश्राद्ध हो चुकनेपर, उल्कापात, अग्निप्रवेश, अतिवृष्टि और सुतक आदि कारण आ उपस्थित हो तो मौजी-बन्धन-संस्कार न करे। जिस बालकका यज्ञोपवीत-मंगल करनेका है उस बालककी माता यदि रजस्वला हो जाय तो उसका यज्ञोपवीत संस्कार नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह बालककी आयुका विनाश करनेवाला है। यज्ञोपवतिके समय माताके साथ बैठकर भोजन करने की विधि होती है। उसके हो चुकने के बादमें माता यदि रजस्वला हो जाय तो कोई हानि