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त्रैवर्णिकाचार ।
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वह बालक होमशालासे निकलकर बाहर आँगनमें आवे । वहां पर आचमन कर और सूर्यको देखकर एक अर्ध दे | बाद अभिके चारों ओर पानीकी धारा देकर उसमें शांन्तिके अर्थ शमीकी समिधा, शालीके चावल, लाज ( लाई ) दूध, घी और नैवेद्यकी तीन आहूतियां छोड़े । बाद मुखको धोकर दोनों ओठोंको मिलाकर अपने मुखपर अभिसे हाथ तपा तपाकर तीन बार फेरे । बाद अग्रिकी उपस्थापना कर उसका विसर्जन करे । पश्चात् विद्याभ्यासपर्यंत भिक्षा मांगकर भोजन करना उस बालकका कर्तव्य है; इसलिए वह गुरुसे आज्ञा लेकर पात्र सहित घरसे बाहर निकले ॥ ३३-३६ ॥
सव्यपादं विधायाग्रे शनैर्गच्छेद् गृहाद्वहिः ।
ब्राह्मणानां गृहे गत्वा भिक्षां याचेत शिक्षया ॥ ३७ ॥ भिक्षाकाले तु निःशङ्को भिक्षां देहीति चाग्वदेत् । यथा शृण्वन्ति स्थास्त्रिवर्णाचारसंयुताः ॥ ३८ ॥ प्रथमकरणादी द्वौ चरणद्रव्ययुग्मकम् । अनुयोगाच चत्वारः शाखा विममते मताः ॥ ३९ ॥ तासांमध्ये तु या शाखा यस्य वंशे प्रवर्तते । तामुक्त्वा गृहिणी तस्मै सन्दद्यात्तण्डुलाञ्जलिम् ॥ ४० ॥
Taron अपने दाहिने पैरको प्रथम आगे बढ़ाकर धीरे धीरे घरसे बाहर निकले । ब्राह्मणोंके घरपर जाकर गुरुकी शिक्षाके अनुसार भिक्षा मांगे। भिक्षा के समय निःशंक अर्थात् लाज छोड़कर " भवति भिक्षां देहि " इस तरहके वचन बोले । अपने मुखसे इस तरहके वचन बोले कि जिन्हें तीन वर्णोंक आचरणयुक्त गृहस्थ स्पष्ट सुन लें। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, और द्रव्यानुयोग, ये चार शाखाएं ब्राह्मणोंके मत में मानी गई हैं । उनमेंसे जो शाखा ब्राह्मणके घर में चली आई हो उसे बोलकर गृहिणी उस बालकको अंजलिभर चावलोंकी भिक्षा देवे || ३७-४० ॥
भिक्षायाचनकं दृष्ट्वा वन्धुवर्गों वदेदिदम् ।
दूरदेशान्तरे पुत्रमागच्छ त्वं तु बालकः ॥ ४१ ॥ अत्रैव गुरुसानिध्ये विद्याभ्यासं सदा कुरु । मध्ये कुटुम्बवर्गस्य सर्वेषां सुखदायकः ॥ ४२ ॥ अङ्गीकृत्य वचस्तेपां गच्छेच्चासौ जिनालयम् । क्रियां कुर्यात्तु होमादिसम्भवां जिन पूजनम् ॥ ४३ ॥ . ब्राह्मणादींस्ततः सर्वान् भोजयित्वा यथाविधि । वस्त्रभूषणताम्बूलैः पुण्यार्य परिपूजयेत् ॥ ४४ ॥
उस बालककी भिक्षाकी याचनाको देखकर बंधुवर्ग इस तरहके वचन बोलें कि, हे बालक !
तू अभी बालक है, दूर देशोंको मत जा, यहींपर गुरुके निकट हमेशह विद्याभ्यास कर और
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