Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti

Previous | Next

Page 307
________________ सोमसेनभट्टारकविरचित wimwwwmummaNAurudwarArunanumanuswimwernadawwwwwafaiantarwaran............... ...... .. ऐसा असर पड़ जाय जिससे उसकी आत्मामें विलक्षणता आ जाय । केवल जड़ कहकर हरएककी अवहेलना करमा ठीक नहीं है। मंदिरोंको, सिद्धस्थानोंको, समवशरणको, परमात्मासंबंधी हरएक उपकरणको, गन्धोदकको आदि अनेक जड़ पदार्थोंको नमस्कार करते ही हैं। जिन अभिप्रायोंसे यह . ठीक है वैसे ही इस समयके अभिप्रायोंसे यह भी ठीक हो सकता है। हां, यदि इस इच्छासे प्रेरित होकर हमेशह ही या स्वर्गादिकको इच्छासे या उस वृक्षको ही कत्ती हत्ती मानकर जब कभी वह दृष्टिगोचर हो तभी उसे हाथ जोड़ना नमस्कार करना अवश्य मूढ़ता है । लोग जो हमेशह या. विशेष विशेष दिनोंमें पीपल पूजन करते हैं वह भी मूढ़ता है। इन बातोंसे तो अन्धकारका कहना अयुक्त मालूम नहीं पड़ता। जो लोगं वीतराग प्रतिमाको, उसके स्तोत्रीको, प्रतिष्ठापाठोंको अंयुक्त बतलाते हैं उनके लिए तो सभी अयुक्त ही है। वे तो . वृक्ष पूजन दूर रहे, यज्ञोपवीत संस्कारको ही अयुक्त बताते हैं। कहनेका सारांश यह है कि, हरएक कथन आपेक्षिक हुआ करता है । यदि उनमें से अपेक्षा हटा दी जाय और विचार किया जाय तो जैनमतके सभी विषयोंमें परस्पर विरोध झलकने लगेगा। और यदि उसीको अपेक्षासे विचार करेंगे तो विरोधका पता भी नहीं चलेगा। जैसे व्यवहारनय और निश्चयनयको ही लीजिये। व्यवहारके बिना निश्चय कार्यकारी नहीं है और निश्चयके बिना व्यवहार कार्यकारी नहीं है। एक स्थानमें गृहस्थाश्रमकी-पुत्र आदिकी भारी प्रशंसा की गई है। दूसरे स्थानोंमें उनको हेय बतलाया है। क्या यह परस्पर विरोध नहीं है। परंतु अपेक्षासे विचार किया जाय तो रंचभर भी परस्परमें विरोध नहीं है। इसी तरह जिन अपेक्षाऔसे सूर्यको अर्घ देना, वृक्षपूजन करना, संक्रातिमें दान देना, गंगायमुना आदिमें स्नान करना बुरा बताया गया है उन अपेक्षाओंसे इन कार्योको करना अवश्य बुरा.है । और जिन अपेक्षाभोस इनका निषेध नहीं है, उन अपेक्षाओंसे इनका करना बुरा भी नहीं है। सिर्फ स्थान का विचार कर लेना आवश्यक है। वर्षेऽतीते त्रिकालेषु सन्ध्यावन्दनसस्त्रियाम् । सदा कुर्यात्स पुण्यात्मा यज्ञोपवीतधारकः ॥ ५३॥ । • यज्ञोपवीत धारण किये हुए एक वर्ष व्यतीत होजानेपर यज्ञोपयीत धारण करनेवाला पुण्यात्मा पुरुष तीनों कालोंमें अर्थात् सुबह, दोपहर और शामको संध्या, वंदन आदि उत्तम क्रियाएं करे ॥ ५३ ॥ उपवीतं बटोरेक द्वे तथेतरयोः स्मृते। . एकमेव महत्पूतं सावधिब्रह्मचारिणाम् ॥ ५४ ॥ यज्ञोपवीते द्वे धार्य पूजायां दानकर्मणि । तृतीयमुत्तरीयाथै वस्त्राभावे तदिष्यते ॥ ५५ ॥ रन्धादिनामिपर्यन्तं ब्रह्मसूत्रं पवित्रकम् । न्यूने रोगमवृत्तिः स्यादधिके धर्मनाशनम् ॥ ५६ ॥ आयुःकामः सदा कुर्यात् द्वित्रियज्ञोपवीतकम् । ... ..':. . ... . . पञ्चभिः पुत्रकामः स्याद्धर्मकामस्तथैव च ॥ ५७॥ ........ न

Loading...

Page Navigation
1 ... 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438