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सोमसेनभट्टारकविरचित
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कार्पासमुपवीतं स्याद्विपस्योर्ध्व त्रिद्धृतम् । हेमसूत्रमयं राज्ञो वैश्यस्य पट्टसूत्रकम् ॥ ६४ ॥ उच्छिष्टं तोरणं छिन्नं द्रिकृतं विधवाकृतम् । भुक्तोत्तरे त्वनध्याय सप्ततन्तु न धारयेत् ।। ६५ ॥ सूतके पातके म्लाने तैलस्याभ्यङ्गक तथा।
कण्ठादुत्तार्य सूर्य तु कुर्युर्वे क्षालनं द्विजाः ॥ ६६ ॥ ब्राह्मण रईका, क्षत्रिय सुवर्णका और वैश्य पट्टसूत्रका यज्ञोपवीत धारण करें। जो किसी तरह जूठा होगया हो, तोरणलप किया गया हो-दोनों हाथोंसे पकड़कर गलेके बाहर निकाल लिया गया हो. टूट गया हो, दो बार सूत कातकर बनाया गया हो, विधवाके द्वारा बनाया गया हो, भोजनके बाद बनाया गया हो और अनध्याय के दिनोंमें बनाया गया हो, ऐसा सात तंतुका यज्ञोपवीत नहीं पहनना चाहिए । सूतक होनेपर, पातक होनेपर, मैला हो जानेपर और शरीर में तेल मदन करनेपर उस यज्ञोपवीतको गलेसे बाहर निकालकर जलसे अच्छी तरह धोव ॥ ६४-६६ ॥
व्रतचर्या विधि । व्रतचर्यामहं वक्ष्ये क्रियामस्योपविभ्रतः ।
कट्यूरूर शिरोलिङ्गमनूचानव्रतोचितम् ॥ ६७ ॥ अब उत्तम व्रतके योग्य कटि, उरु, हृदय और मस्तकके चिन्होंको धारण करनेवाले इस वालककी व्रतचर्या नामकी क्रिया कही जाती है ।। ६७ ॥
कटिलिङ्ग भवेदस्य मौजीवन्धं त्रिभिर्गुणैः ।
रत्नत्रयविशुद्धयङ्गं तद्धि चिन्हं द्विजन्मनाम् ।। ६८॥ तीन लड़का बना हुआ मौजीबंध ही इस वालकका कटिलिंग है, जो रत्नत्रयकी विशुद्धिका कारण है और द्विजन्मी पुरुषोंका चिन्ह है-उससे यह जाना जा सकता है कि, इसके गर्भजन्म और यज्ञोपवीत संस्काररूप जन्म इस तरह दो जन्म, हो चुके हैं ॥ ६८ ॥
तच्चेष्टमूरुलिंगं च सधौतसितशाटकम् ।
आर्हतानां कुलं पूतं विशालं चेति सूचने ॥ ६॥ धोई हुई जो सफेद धोती पहनी जाती है वही इसके उरुलिंग है, जो आईत्पुरुषोंकाजैनौका कुल पवित्र और बड़ा है, ऐसा सूचित करता है ॥ ६९ ॥
उरोलिङ्गमथास्य स्याद्ग्रन्धित सप्तभिर्गुणैः ।
यज्ञोपवीतकं सप्तपरमस्थानमूचकम् ॥ ७० ॥ ___सात धागेका बना हुआ जो यज्ञोपवीत पहना जाता है वही इसके उरोलिंग-हृदयका चिन्ह है, जो आगे कहे जानेवाले सात परमस्थानोंको सूचित करनेवाला है ॥ ७० ॥
शिरोलिंगं च तस्येष्टं परं मौण्डयमनाविलम् । . मौण्डयं मनोवचाकायगतमस्योपबंहितम् ॥ ७१॥