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वर्णिकाचार
२७१ निदोप-विकाररहित जो शिरका मुंडन है वही उस बालकके परम शिरोलिंग है, जो मन वचन और कायकी शुद्धिको बढ़ाता है ॥ ७१ ॥ __ एवम्पायेण लिङ्गेन विशुद्धं धारयेद्वतम् ।
स्थूलहिंसाविरत्यादि ब्रह्मचर्योपबृंहितम् ॥ ७२ ॥ ऊपर बताये गये चारों लिंगयुक्त वह बालक स्थूल हिंसाका त्याग, ब्रह्मचर्य वगैरह निर्मल व्रत धारण करे ॥ २ ॥
दन्तकाष्ठग्रहो नास्य न ताम्बूलं न चाञ्जनम् । न हरिद्रादिभिः स्नानं शुद्धिस्नानं दिनम्मति ॥ ७३ ॥ न खवाशयनं तस्य नान्याङ्गपरिघट्टनम् ।
भूमौ केवलमेकाकी शयीत व्रतशुद्धये ॥ ७४ ॥ यह ब्राह्मचारी काठ (लकड़ी) से दतौन न करे, तांबूल न खावे, आखोंमें काजल न आंजे, हल्दी वगैरहका उबटन न करे, केवल दिनमें एक बार मनःशुद्धिके अर्थ शुद्ध जलसे स्नान करे, खाटपर न सोवे, और औरोंके शरीरसे अपने शरीरका घर्पण न करे-दूसरेके शरीरसे अपना शरीर न मिलावे । वह केवल अपने प्रतोंकी शुद्धि के लिए जमीनपर अकेला सोवे ।। ७३-७४ ॥
। व्रतावतरण । श्रावणे मासि नक्षत्रे श्रवणे पूर्ववक्रियाम् । पूर्वहोमादिकं कुर्यान्मौजी कटयाः परित्यजेत् ।। ७५ ।। तत आरभ्य वस्त्रादीन् गृहीयात्परिधानकम् ।
शय्यां शयीत ताम्बूलं भक्षयेद्गुरुसाक्षितः ॥ ७६ ॥ वह बालक श्रावण महीनेके श्रवण नक्षत्रमें पहलेकी तरह होम, जिनपूजा वगैरह करके कमरमें जो मौंजीवन्धन बँधा था उसे अलहदा करे । उसी वक्तसे लेकर गृहस्थके पहनने योग्य वस्त्र पहने, शय्यापर सोवे और तांबूल भक्षण करे । यह व्रतावरण क्रिया गुरुसाक्षिपूर्वक करे ॥ ७५-७६ ॥ अथवा-यावद्विचासमाप्तिः स्यात्तावदस्यदृशं व्रतम् ।
तताऽप्यूचं व्रतं तु स्याचन्मूलं ग्रहमेधिनाम् ॥ ७७॥ अथवा जबतक इस बालकके विद्याकी समाप्ति होती है तबतक उसके ऊपर बताये हुए प्रत रहते हैं। इसके बाद भी व्रत तो रहते हैं, परन्तु वे व्रत रहते हैं जो ग्रहस्थोंके योग्य होते हैं। भावार्थ-विद्यासमाप्तिपर्यन्त तो ऊपर बताये हुए प्रत रहते हैं। बादमें व्रत छुट जाते हैं और गृहस्थ के योग्य अष्टमूलगुणादि व्रत उसके होते हैं ।। ७७ ॥
सूत्रमौपासकं चास्य स्यादध्येयं गुरोर्मुखात् ।
विनयेन ततोऽन्यच्च शास्त्रमध्यात्मगोचरम् ॥ ७८॥ इस बालकको अपने गुरुमुखसे विनयपूर्वक. श्रावकाचार पढ़ना चाहिए । इसके बाद अन्य अध्यात्म शास्त्रका अध्ययन करना चाहिए ॥ ७८॥