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जैवर्णिकाचार |
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भावार्थ- सूर्यको अर्घ देना, संक्रान्तिके दिन दान देना, गंगादि नदियोंमें स्नान - करना, वृक्षकी पूजा करना, सरोवर की पूजा करना, इनको लोकमूढ़ता आगममेंकहा है | यहांपर अंधकारने वृक्षपूजन बताया है, इसलिए इसका लोकमूढ़तामै अन्तर्भाव होना चाहिए | किन्तु ग्रन्थकार लिखते हैं कि इस लौकिक आचरण करनेसे मिध्यात्व नहीं है । इससे यह मालूम होता है कि इसमें कुछ थोड़ासा रहस्य है । सिर्फ जिस तरह शरीरकी निर्मलता के लिए कुए बावड़ीपर स्नान करते हैं उसी तरह गंगा यमुना आदि नदियों में स्नान करना लोकमूढ़ता नहीं है। किंतु वर ( वांछित फलको प्राप्त करने ) की इच्छासे उनमें स्नान करना लोकमूढ़ता है। यदि हम घरपर स्नान करते हैं और उसमें भी हम इस इच्छासे स्नान करें कि इससे हमें स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति होगी तो यह इच्छा भी परमार्थके प्रतिकूल होनेसे मिथ्या ही है । इसलिए यहांपर ऐसा समझना चाहिए कि जो ऐसे अभिप्रायोंको धारण कर गंगा यमुनामें स्नान करें तो उसे लोकमूढताका सेवन करनेवाला कहना चाहिए और जो सामान्यसे अर्थात् घरपर जिस तरह नित्य स्नान करता है उसी तरह स्नान करे तो वह मिध्यापन नहीं है । यह न्याय नहीं है कि कोई अपनी नित्यक्रिया के अनुसार या वैसे ही गंगा में स्नान कर रहा हो और उसे चटसे मिथ्याती कह दें। केवल कहने से कुछ नहीं होता, होता है स्नान करनेवालेके अभिप्रायोंसे । स्वर्गमोक्षकी इच्छासे सूर्यको अर्घ देना मिथ्या है। किन्तु प्रतिष्ठादिके समय विशेष विधिके अनुसार सूर्यको अर्घ देना मिथ्या नहीं है, जो अखिल प्रतिष्ठापाठों में प्रसिद्ध ही है । स्वर्ग मोक्षकी इच्छासे संक्रांतिके दिन दान देना मिथ्या है, परंतु जो स्वतः स्वभाव प्रतिदिन भक्तिदान या करुणादान करता है और वह उस दिन भी अपने हमेशाहकी तरह दान देवे तो उसे भी मिध्यादृष्टि कहने लग जायें, यह न्याय नहीं है। सरोबरको पूजा करना मिथ्या है, परंतु प्रतिष्ठादिकोंके समय जो सरोवरकी पूजा की जाती है वह मिथ्या नहीं है। काली, चंडी, मुंडी देवियाँका सत्कार करना मिथ्या है । परंतु प्रतिष्ठादिकके समय इनका भी यथायोग्य सत्कार किया जाता है वह मिथ्या नहीं है । इसे सम्पूर्ण प्रतिष्ठापाठोंके ज्ञाता पुरुप स्वीकार करेंगे। जो लोग किसीभी शास्त्रको नहीं मानते हैं उनके लिए हमारा कुछ कहना नहीं है । परन्तु हमारे बड़े बड़े दिग्गज विद्वान और धर्मके ज्ञाता पुरुष प्रतिष्ठापाठीको प्रमाण मानते हैं और उनके अनुसार प्रतिष्ठा कराते हैं। वे तो इन उपर्युक्त बातोंको अवश्य ही स्वीकार करेंगे। इससे यह अभिप्राय निकलता है कि विशेष विशेष विधियोंमें स्वर्ग मोक्ष आदिकी इच्छा न कर शान्तिके लिए ऐसा करना मिथ्या नहीं है । इसी तरह इस यज्ञोपवीत नामकी विशेष विधि बोधिकी इच्छा से बोधिवृक्षकी पूजा करना मिथ्या नहीं होना चाहिए। हां, यहांपर यह शंका हो सकती है कि उस जड़ पदार्थ से बोधि- ज्ञान कैसे प्राप्त हो सकता है ! इसका समाधान यह है कि ज्ञानप्राप्ति में अंतरंग कारण उसका क्षयोपशम है और बाह्य कारण अनेक हैं। संभव है कि जिस तरह क्षेत्रको निमित्त लेकर ज्ञानका क्षयोपशम हो जाता है, वैसे ही ऐसा करनेसे भी ज्ञानका क्षयोपशम हो जाय । वह क्षेत्र भी जड़ ही है। जैसे पुस्तक आदि जड़ पदार्थसे ज्ञानका क्षयोपशम होता है, वैसे ही उस वृक्षके निमित्तसे भी क्षयोपशम हो सकता है। जड़ वस्तुएँ आत्माके ऊपर अपना असर डाला करती हैं | इसके अनेकों दृष्टान्त भरे पड़े हैं। संभव है कि उस वृक्ष के निमित्त से भी आत्मापर एक
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