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त्रैवर्णिकाचार । मौजकी तीन लड़ी एक रस्सी बनावे । उसे तिगुनी कर एक मौंजीबन्धन बनाये। उसे कौपीन और कटिसूत्रके ऊपर कटिलिंग कल्पित करे । बाद “ॐ ही कटिप्रदेशे" इत्यादि मंत्र पढ़कर उसके तीन गांठ लगाकर उस मौंजीबन्धनको कमरके चारों ओर बांधे ॥ २३ ॥ .
मंत्र-ॐ नमोऽहते भगवत तीर्थकरपरमेश्वराय कटिसूत्रं कौपीनसहितं मौंजीवन्धनं करोमि पुण्यबन्धो भवतु असि आ उ सा स्वाहा । इति कट्या मुञ्जीं धृत्वा पुष्पाक्षतान् क्षिपेत् । - अर्थात्-" ॐ नमोऽहते " इत्यादि मंत्र पढ़कर मौंजीको हाथमें लेकर उसपर पुष्प और अक्षत क्षेपण करे।
रत्नत्रयात्मकं सूत्रं यज्ञसूत्र सुनिर्मलम् ।
हरिद्रागन्धसाराक्तरोलिङ्गं प्रकल्पयेत् ॥ २४ ॥ मंत्र-ॐ नमः परमशान्ताय शांतिकराय पवित्रीकृतार्ह रत्नत्रयस्वरूपं यज्ञोपवीतं दधामि मम गात्रं पवित्रं भवतु अहं नमः स्वाहा । इत्यनेन यज्ञोपवीतमुरसि धारयेत् ।
यह निर्मल यज्ञसूत्र रत्नत्रयस्वरूप है । इसे हल्दी और चन्दनसे रंगे और इसमें उरोलिंग की कल्पना करे। भावार्थ-यह यज्ञोपवीत छातीका चिन्ह है, ऐसा समझे । और “ॐ नमः परमशान्ताय" इत्यादि मन्त्रको पढ़कर उस यज्ञोपवीतको छातीमें धारण करे-पहने ॥ २४ ॥
जिनराजपदाम्भोजशेषसंसर्गपावनीम् ।
ब्रह्मग्रन्थि शिखामेव शिरोलिंगं मकल्पयेत् ॥ २५ ॥ मंत्र-ॐ नमोऽहते भगवते तीर्थकरपरमेश्वराय कटिसूत्रपरमेष्ठिने ललाटे शेखरं शिखायां पुष्पमालां च दधामि मां परमेष्ठिनः समुद्धरन्तु ॐ श्री ही अहं नमः स्वाहा । अनेन शिरसि पुष्पमालां धृत्वा तिलकं कृत्वा नवीनवस्त्रोत्तरीयपरिधानं कुर्यात् ।
जो जिनदेवके चरण-कमलसम्बन्धी गन्ध, अक्षत आदि पदार्थोंके स्पर्शस पवित्र हुई ब्रह्मप्रन्थियुक्त (जिसमें ब्रह्मगांठ लगी हुई है) अपनी चोटीमें ही शिरोलिंगकी कल्पना करे। भावार्थ-अपनी चोटीको ही शिरोलिंग समझे और उसमें ब्रह्मगांठ लगावे । ॥ २५ ॥
“ॐ नमोऽहते" इत्यादि मन्त्र पढ़कर सिर, पुष्पमाला धारण कर और तिलक लगाकर नई धोती और दुपट्टा पहने।
अन्तरीयोत्तरीये द्वे नूत्ने धृत्वा स मानवः । आचम्य तर्पणान्यानपि कृत्वा यथाविधि ॥ २६ ॥ ततोञ्जलिं च संयोज्य गन्धाक्षतफलान्वितम् । आचार्य याचयेत्पुत्रो व्रतानि मुक्तिहेतवे ॥ २७॥ . तच्छ्रुत्वा श्रावकाचाराव्रतानि गुरुरादिशेत् ।। गृह्णीयाचानि सम्भीत्या वीजमन्त्रं गुरोर्मुखात् ॥२८॥