________________
२४८
सोमसेनभट्टारकविरचित
अनर्थका बाह्य लोग भी निषेध करते हैं उसका जैन ऋपि कभी भी विधान नहीं करेंगे । यह बात आवालगोपाल प्रसिद्ध है कि विवाहविधि में सर्वत्र कन्याविवाह ही बताया गया है, विधवाविवाद नहीं । विधवाविवाहसे तो प्रत्युत उसमें घृणा प्रकट की गई है । आदिपुराणके ४४ वें पर्वमें पढ़खंडाधिपति भरत चक्रीके पुत्र अर्ककीर्ति महाराज विधवासे इस प्रकार घृणा करते हैं
नाहं सुलोचनास्मि मत्सरी मच्छरैरयं । परासुरधुनैव स्यात् किं मे विधवया तया ||
मैं सुलोचनाको नहीं चाहता, क्योंकि इस मत्सरी जयकुमारके प्राण मेरे बाणोंसे अभी लापता हुए जाते हैं, तब मुझे उस विधवा सुलोचनासे प्रयोजन ही क्या हूँ ?
पद्मपुराण से भी विधवा-विवाहका निपेध होता है-जिस समय खरदूषण शूर्पणखाको हरकर ले भगे तब महाराज रावणने उनसे युद्ध करनेकी ठान ली । उस समय मंदोदरी महादेवी • रावण महाराज से कहती है कि-
"
कथंचिच हुतेऽप्यस्मिन् कन्याहरणदूषिता ।
अन्यस्मै नैव विभ्राण्या केवलं विधवी भवेत् ॥
हे प्राणनाथ ! आप किसी तरह युद्ध में खरदूपणको मार भी देंगे तो भी कन्या हरण से दूषित हो चुकी है, अब वह दूसरेको देने योग्य नहीं रही है। अतएव वह खरदूषण के मारे जाने पर केवल विधवा ही कही जायगी ।
1
महापुराण और पद्मपुराण ये दोनों पुराण जैनोंके आर्प ग्रंथ कहे जाते हैं। इनकी प्रमाणता भी जैनोंकी नस नसमें उसी हुई है । अतः इन दोनों आर्ष ग्रन्थोंसे निश्चित होता है कि विधवाविवाह एक निद्य वस्तु है और वह आगमविरुद्ध भी है । ग्रन्थकर्ता सोमसेन महाराजके अभिप्राय भी आगमानुकूल हैं । विधवाविवाहकी ओर उनके परिणाम जरा भी विचलित नहीं हैं । ग्रन्थकारने विधवाके लिए आगे तेरहवें अध्याय में दो ही मार्ग बताये हैं, एक जिन-दीक्षा ग्रहण करना और दूस वैधव्य दीक्षा लेना. उन्होंने इन दो भागोंके अलावा तीसरा विधवा-विवाह नामका मार्ग नहीं बतलाया है । अतः निश्चित होता है कि ग्रन्थकारका आशय विधवाविवाह के अनुकूल नहीं हैं, वे तो विधवा-विवाहको एक निंद्य वस्तु समझते हैं अन्यथा वे उक्त दो मार्गोके अलावा वहीं पर एक विधवाविवाह नामका तीसरा मार्ग और बतला देते । ग्यारहवें अध्यायके कुछ लोकों परसे भी विधवाविवाहका आशय निकाला जाता है वह भी ठीक नहीं है उन श्लोकोंका सष्टीकरण भी वहीं करेंगे | कहने का तात्पर्य यह है कि शूद्रापुनर्विवाहमेडने इस पदवर से या और भी कई श्लोकों और पदोंपर से ग्रंथकारका आशय विधवाविवाहरूप सिद्ध नहीं होता || ११५-११९ ॥ निच्छिद्रे निस्तुषे ताले शिशोः मस्तीर्य तत्पिता ।
निजनाम लिखेत्तत्र स्वाभीष्टं जन्मनाम च ॥ १२० ॥ क्षीरसर्पिर्युते पात्रे निधाय भषणानि वै ।
तत्ताले पूर्वताले च गन्धपुष्पकुशान् क्षिपेत् ॥ १२१ ॥ मस्तके कर्णयोः कण्ठे भुजयुग्मे च वक्षासे । साज्यं पयः कुशैः सिक्त्वा भूषणैर्भूपयेच्छिम् ॥ १२२ ॥
१' निस्तुषानक्षतास्ताले ' इति पाठा साधुः ।