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सोमसेनभट्टारकविरचित
. . भोजनके बर्तनोंका अन्तर। अन्तरं भुक्तिपात्राणां वितस्तिद्वयमश्नताम् ।
द्वित्रिहस्तं यथा न स्याच्छीकरस्पर्शनं तथा ॥ १७० ॥ भोजन करनेवालोंके भोजनके पात्रोंका एक दूसरेसे दो बेत अथवा दो तीन हाथका फासला रहना चाहिए, जिससे एक दूसरेके छींटे उछलकर इधर उधर न जावें ॥ १७०॥
___ पत्तोंमें भोजन करनेकी विधि। विवाहे वा प्रतिष्ठायां कांस्यपात्राद्यसम्भवे ।
पर्णपात्रेषु भोक्तव्यमुष्णाम्बुप्रासुकेषु च ॥ १७१॥ विवाहके समय अथवा प्रतिष्ठाके समय आवश्यकताके अनुसार कांसीके वर्तन न मिले तो गर्मजलसे धोकर प्रासुक की हुई पत्तोंकी बनी हुई पत्तलोंमें भोजन करे ।। १७१ ॥
भोजनके योग्य पत्ते। रम्भाकुटजमध्वानतिन्दुफणसचम्पकाः ।
पद्मपोफलपलाशवटवृक्षादिपत्रकम् ॥ १७२ ॥ केला, कुटन वृक्ष, मध वृक्ष, आम्र वृक्ष, फणस वृक्ष, चम्पक वृक्ष, कमल, पोफल वृक्ष, ढाक, बड़ इत्यादि वृक्षोंके पत्ते भोजनके योग्य होते हैं ॥१७२।।
____ अयोग्य पत्ते। चिश्चार्काश्वत्थपणेषु कुम्भीजम्बूकपर्णयोः ।
कोविदारकदम्बानां पात्रेषु नैव भुज्यते ॥ १७३ ।। चिंच वृक्ष, आक, पीपल, कुंभीज वृक्ष, जांबू, कांचन वृक्ष और कदम्ब वृक्ष इनके पत्तोंपर भोजन न करे ॥ १७३ ।।
निषिद्ध पात्र । करे खपरके गेही शिलायां ताम्रभाजने ।
भिन्नकांस्ये च वस्त्रे च न भुञ्जीयात्तथायसे ॥ १७४ ।। गृहस्थ लोग हाथमें, मिट्टीके खपरोंमें, पत्थरपर, तांबेके वर्तनमें, फूटे हुए कांसेके वर्तनमें, कपड़ेमें तथा लोहेके पात्रमें भोजन न करें ॥ १७४ ॥
वर्तनमें भोजन रखनेकी विधि । अन्न मध्ये प्रतिष्ठाप्यं दक्षिणे घृतपायसम् । शाकादि पुरतः स्थाप्यं भक्ष्यं भोज्यं च वामतः ॥ १७५ ।।