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त्रैवर्णिकाचारं । ...
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पात्र-दान और जिन भगवानकी पूजा करते समय तथा एकाशनके दिन पान न खाबे । और पारणेके दिन भोजन करनेसे पहिले पान न खावे ॥ २३९ ॥
एलालवंगकर्पूरसुगन्धान्यसुवस्तुकम् ।
भक्षयेत्सह पर्णैश्च तथा वा मुखशुद्धये ॥ २४० ।। इलायची, लौंग, कपूर और दूसरे २ सुगन्धित पदार्थ पानके साथ खावे। तथा मुखशुद्धिके लिए वगैर पानके भी इन चीजोंको खावे ॥२४॥
दोपहरके समय शयन करनेकी विधि । ' ' शनैः शनैस्ततो गत्वा चाप्टोत्तरशतं पदान् ।
उपविश्य घटीयुग्मं स्वपेद्वा वामभागतः ॥२४१ ॥ तांबूल चर्वण कर चुकनेके बाद धीरे धीरे एक सौ आठ पैंड घूमकर अथवा कुछ थोड़ी देर तक वैठकर बाई करबटसे दो घड़ी सोबे ॥ १४१ ॥
न स्वपेद्दिवसे भूरि रोगस्योत्पत्तिकारणम् ।
कार्याणां च विनाशः स्यादङ्गशैथिल्यमत्र च ॥ २४२ ॥ दिनमें बहुत न सोवे । क्योंकि दिनमें सोना रोगकी उत्पत्तिका कारण है, गृह-कार्यों में हानि पहुँचती है और सारे अंग-उपांग ढीले पड़ जाते हैं ॥ २४२ ॥
अत्यम्बुपानाद्विपमाशनाच । दिवाशयाज्जागरणाच रात्रौ ॥
निरोधनान्मूत्रपुरीपयोश्च । पड्भिःप्रकारैः प्रभवंति रोगाः ॥२४३ ।। अधिक जल पीने, विषम-अरुचिकर या परिमाणसे अधिक भोजन करने, दिनमें अधिक सोने, रात्रिम जागने और टट्टी-पेशाबकी बाधा रोकने-इन छह कारणोंसे रोग उत्पन्न होते हैं ॥२४३॥
भुक्तोपविशतस्तुन्दं वलमुत्तानशायिनः ।
आयुर्वामकटिस्थस्य मृत्युर्धावति धावतः ॥ २४४ ।। भोजन करके बैठे रहनसे तौंद बढ़ती है, मुंह ऊपरको करके सीधा सोनेसे बल बढ़ता है, बाई करवट सोनेसे आयु बढ़ती है और दौड़नेसे मृत्यु दौड़ती है-~-आयु घटती हैं ॥ २४४ ॥
चैतस्थानगमागमौ जिनमते प्रीतिश्च पात्रे रुचिराहारादिसुदानदत्तिकथनं मुक्तिश्च शय्याऽऽसनम् ॥ योग्यायोग्यसुवस्तुभक्ष्यकथनं श्रीसोमसेनेन वै।
सम्प्रोक्ता बहुधा जिनेन्द्रवचनाद्धर्मप्रदाः सक्रियाः ॥ २४५ ॥ जिन मंदिरको आना, यहांसे वापिस घर जाना, जिनमतमें प्रीति करना, पात्रमें प्रेम करना, आहारादि चार प्रकारके दान देना, भोजन करना, सोना, बैठना, योग्य वस्तुका भक्षण करना और