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त्रैणिकाचार |
लक्षं खुचं न गृण्हीयात् कूटलेखं च वर्जयेत् ।
मायाशल्यं निदानं च क्रौर्यरागातिलोभताम् ॥ १०७ ॥
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वैश्य लॉंच न ले, और कोई खुशीसे कुछ दे उसे भी न ले । क्योंकि लांचके लेनेसे अपने परिणाम लांच देनेवाले की ओर झुक जाते हैं, जिससे कार्यों के ठीक ठीक होनेकी संभावना नहीं रहती । वैश्य खांटे लेख, तमस्सुक आदि न लिखे, छल कपट न करे, अप्राप्त वस्तुके ग्रहण करनेकी लालसा न रक्खे, परिणामों में क्रूरता न रक्खे और अत्यन्त राग और लोभ न करे ॥ १०७ ॥
किंकरं तु समाहूय दत्वा च नृपभान् परान् ।
वीजधान्यं धनं वित्तं संस्कुर्यात् कृषिकर्म च ॥ १०८ ॥
अच्छे अच्छे बैल और बोने योग्य अच्छा बीज तथा अन्य उपयोगी सामग्री देकर नौके से खेती करावे ॥ १०८ ॥
व्रतधारी क्रियाकारी सामायिकी तपोरतः ।
न कुर्यात् कर्षणं धर्मी भूरिजीवप्रघातकम् ॥ १०९ ॥
जो व्रतधारी है, नित्य नैमित्तिक क्रियाओं को करता है, निरन्तर सुबह शामको सामायिक करता है और उपवास आदि तपश्चरण करता है, ऐसा धर्मात्मा वैश्य स्वयं खेती न करे | क्योंकि सुनी करने बहुत से जीवोंका घात होता है ॥ १०९ ॥
गोमहिषीतुरंगादीन संगृह्य च व्ययेत्पुनः ।
दधि दुग्धं घृतं तर्क भव्यपात्राय दीयते ॥ ११० ॥ घृतस्य विक्रये दोषो नास्ति व्यापारवर्तिनः । शेषं गव्यं न विक्रीत तृणाद्यैस्तर्पयेद्धनम् ॥ १११ ॥
वैश्य, गाएँ, भेग, मोड़े आदिको खरीदी कर बचे और दूध, दही, घी और मठा योग्य पुरुषों को देवे । व्यापारी गृहस्थको पीके बेचने में कोई दोष नहीं है । घीके अलावा शेष दूध दही आदि न बेचना चाहिये । तथा अपने पासके पशुओंको घास आदिसे खूब तृप्त रक्खेउनी भूखे रहने दे ॥ ११०-१११ ॥
वाणिज्यं त्रिविधं प्रोक्तं पण्यं वृषभवाहनम् ।
अधिनावादिकं चेति कुटुम्बपोषणाय वै ॥ ११२ ॥
ariat अपने कुटुम्बका भरण-पोषण करनेके लिए व्यापार करना चाहिए। वह व्यापार तीन प्रकारका है । प्रथम- दुकान करना, दूसरे बैलगाड़ी आदिमें माल रखकर दूसरी जगह ले जाकर बेचना तथा दूसरी जगहसे माल लाकर अपने यहां बेचना और तीसरे जहाज आदि द्वारा द्वीपान्तरोंको माल ले जाना और वहांसे लाना ॥ ११२ ॥
गजयन्त्रे समानत्वं न्यूनाधिक्यविवर्जितम् ।
अल्पलाभेन कर्तव्यं वस्त्रस्य विक्रयं मुदा ॥ ११३ ॥
कपड़ा नापनेका गज वराबर रक्खे, कंमती ज्यादा न रक्खे । तथा थोड़ा नफा लेकर कपड़ा वेचे ॥ ११३ ॥