Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti

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Page 258
________________ ^^^^^^ त्रैवर्णिकाचार | चक्रातपत्रदण्डासिमणयधर्म काकिणी । चमूगृहपतीभाश्वयोषित्तक्षपुरोधसः ॥ ९४ ॥ रत्नानि निधयो देव्यः पुरं शय्यासने चमूः । भाजनं वाहनं भोज्यं नाट्यं दशाङ्गभोगकाः ॥ ९५ ॥ गणवद्धामराणां तु सहस्राणि च षोडश । इत्यादिविभवैर्युक्तश्चक्रवर्ती भवेद्भुवि ॥ ९६ ॥ २१९ चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख रथ, वायुके समान तेज दौड़नेवाले अठारह करोड़ घोड़े, यमदूतसरीखे चौरासी करोड़ पियादे, छ्यानवे हजार सुन्दर गुणवती स्त्रियाँ, बत्तीस हजार सेवा करनेवाले मुकुटबद्ध राजे, बत्तीस हजार सुन्दर रचनावाले देश बत्तीस हजार नाट्यशालाएँ, इन्द्रपुरी के समान संपदावाले वहत्तर हजार पुर, छयानवे करोड़ रमणीक ग्राम, निन्यानवे हजार द्रोणमुख, अडतालीस हजार पत्तन, सोलह हजार खेट, छप्पन अन्तद्विप, चौदह हजार वाहन, भोजन बनाने के एक करोड़ बर्तन, सौ हजार करोड़ ( दश खरब) हल और कुलव ( बक्खर ), गायोंसे भरे तीन करोड़ बड़े, सात सौ कुक्षिवास, अट्ठाईस हजार दुर्ग ( गढ़ ) और जंगल, अठारह हजार म्लेच्छ राजे, मनचाहे फलोंको देनेवाली और क्रमसे अपने २ देवद्वारा अधिष्ठित, महापुण्यदायिनी और वर्तन, शस्त्र, आभूषण, मकान, कपड़े, धन, बाजे, और नाना प्रकारके रत्न इत्यादि भोग्य पदार्थ देनेवाली काल, महाकाल, माणव, पिंगल, सर्प, पद्म, पांडु, शंख और सर्वरत्न ये नव निधियां; चक्र, छत्र, दंड, खड्ग, मणि, चर्म, काकिणी, सेनापति, गृहपति, हाथी, घोड़ा, स्त्री, सुतार और पुरोहित ये चौदह रत्न; निधियां, देवियां, पुर, शय्या, आसन, सेना, भाजन (बर्तन), वाहन ( सबारी ), भोज्य ( भोजन के योग्य पदार्थ ) नाटय ( खेल-तमाशे के योग्य बस्तुएं ), ये दश भोग्य पदार्थ और सोलह हजार श्रेणीबद्ध देव इत्यादि अनेक प्रकारकी विभूतियुक्त चक्रवर्ती राजा होता है ॥ ८१-९६ ॥ न्यायेन पालयेद्राज्यं प्रजां पालयति स्फुटम् । यः समाप्नोति धर्मिष्ठः सदा राज्यमनागतम् ॥ ९७ ॥ जो न्याय-नीतिसे राजकाजका संचालन और प्रजाका पालन करता है वह धर्मात्मा राजा अपने राज्य के अलावा और भी अधिक राज्यको प्राप्त करता है ॥ ९७ ॥ इत्यतो न्यायमार्गेण हिताय स्वपरात्मने । पालनीयं सदा राज्यं त्रिवर्गफलसाधनम् ॥ ९८ ॥ इसलिए अपने और दूसरोंके हितके लिए हमेशा न्यायमार्ग से राज्यका संचालन करना चाहिए। क्योंकि यह राज्य धर्म, अर्थ और काम, इन तीन पुरुषार्थोंका साधक है ॥ ९८ ॥ सन्यासियोगिविमादी स्वोपयेदानमात्रतः । प्रतीत्य शपथैः सर्वाः प्रजा ग्रामं निवासयेत् ॥ ९९ ॥ सन्यासी, योगी, ब्राह्मण आदिको दान देकर संतुष्ट करे, और शपथोंद्वारा सर्व प्रजाको विश्वास दिलाकर गांव बसावे ॥ ९९ ॥

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