________________
२३०
.
सोमसेनभट्टारकविरंचित -
चतुर्दिक्षु तु ते दीपाः स्थापिताः सन्ति चेदहो । न हि दोपस्तु कश्चन || १७७ ॥
शुभदास्तु ततो
*********
चार दिये चारों दिशाओं में मुखकर धरनेसे शुभ देनेवाले होते हैं। इसमें पहले कहे हुए कोई दोष नहीं लगते | ॥ १७७ ॥
इत्येवं कथितस्त्रिवर्णजनितो व्यापारलक्ष्म्यागमो ।
ये कुर्वन्ति नरा नरोत्तमगुणास्तं ते त्रिवर्गार्थिनः ॥ भोगान परत्रजन्मनि सदा सौख्यं लभन्ते पर
मन्ते कर्मरिपुं निहत्य विमलं मोक्षं व्रजन्त्यक्षयम् ॥ १७८ ॥
इस तरह तीनों वर्णोंका आचार व्यवहार, लक्ष्मीकी प्राप्ति आदिका वर्णन किया । धर्म, अर्थ और काम- इन तीन पुरुषार्थोंके चाहनेवाले जो सज्जन इस त्रैर्वाणक आचरणको करते हैं वे इस जन्ममें उत्तम भोगोंको भोगते हैं और पर जन्ममें भी हमेशा परम सुख पाते हैं । तथा अन्तमें कर्म रूपी वैरियोंको जीतकर वे अक्षय-निर्मल-मोक्षस्थानको जाते हैं ॥ १७८ ॥
त्रिवर्णसल्लक्षणलक्षिताङ्गो । योऽभाणि चातुर्यकलानिवासः ।
व्यापाररूपः स च सप्तमोsसा । वध्याय इष्टो मुनिसोमसेनैः ॥ १७९ ॥
तीनों वर्णोंके आचार-व्यवहारसे परिपूर्ण, चातुर्य कलाका निवास - ऐसा यह सदाचारात्मक सातवां अध्याय मुझ सोमसेनमुनिने निरूपण किया ॥ १७९ ॥