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सोमसेनभट्टारकविरचित
२२ गृहत्याग, २३ दीक्षा, २४ जिनरूपता, २५ मृतकसंस्कार, २६ निर्वाण, २७ पिण्डदान, २८ भाद्ध, २९ जननाशौच, ३० मृतकाशौच, ३१ प्रायश्चित्त, ३२ तीर्थयात्रा और ३३ धर्मोप्रदेश- ये तैंतीस क्रियाएं हैं ॥ ४-८ ॥
गर्भाधान क्रिया ।
ऋतुमती स्वहस्ते तु यावद्दिनचतुष्टयम् । मल्लिकादिलतां धृत्वा तिष्ठेदेकान्तसद्मनि ॥ ९ ॥
चतुर्थे वासरे पञ्चगव्यैः संस्नापयेच्च ताम् । हरिद्रादिकसद्वस्तुसुगन्धैरनुचर्चयेत् ॥ १० ॥
रजस्वला स्त्री, चार दिन तक अपने हाथमें मल्लिका ( मोगरा - बेला ) आदिकी बेल लिये हुए एकान्त स्थानमें बैठी रहे, चौथे दिन पंचगव्यसे स्नान कर हल्दी आदि मंगल द्रव्य तथा सुगन्धित पदार्थोंका शरीर पर लेप करे ॥ ९-१० ॥
प्रथमर्तुमती नारी भवत्यत्र गृहागणे । ब्रह्मस्थानात्पृथग्भागे कुण्डत्रयं प्रकल्पयत् ॥ ११ ॥ ॥ पूर्ववत्पूजयेत्सूरिः प्रतिमां वेदिकास्थिताम् । चक्रच्छत्रत्रयोपेतां यक्षयक्षीसमन्विताम् ॥ १२ ॥
जब स्त्री पहले ही पहले रजस्वला हो तब अपने घर के आँगन में ब्रह्म-स्थानको छोड़कर किसी दूसरे स्थानमें पहलेकी तरह तीन कुंड बनावे और वहां वेदके ऊपर तीन चक्र, तीन छत्र और यक्षयक्षीसे युक्त जिनप्रतिमा विराजमान कर गृहस्थाचार्य पूजा करे ॥ ११-१२ ॥
ततः कुण्डस्य प्राग्भागे हस्तमात्रं सुविस्तरम् । चतुरस्रं परं रम्यं सँस्कुर्याद्वेदिकाद्वयम् ॥ १३ ॥ पञ्चवर्णैस्ततस्तत्र संलिखेदग्निमण्डलम् ।
अष्टदिशासु पद्माष्टं मध्ये कर्णिकया युतम् ॥ १४ ॥
इसके बाद कुंडसे पूर्व दिशाकी ओर एक हाथ लम्बी चौड़ी चौकोन दो वेदिकाएँ बनावे | पश्चात् उनके ऊपर पांच रंगके चूर्णंसे अग्निमंडल लिखे । उस अग्निमंडलकी आठों दिशाओं में बीचमें कार्णिका-युक्त भाठ पाँखुरीवाले आठ कमल बनावे ॥ १३-१४ ॥
चतुथ वाऽह्नि सुस्नात जायापती निवेश्य च ।
तत्र चालङ्कृतौ वृद्धस्त्रीभिश्च क्रियते क्रिया ।। १५ ।। मृदा संलिप्य सद्भूमिं निशांचूर्णैश्च तण्डुलैः । तयोर लिखेद्यन्त्रं स्वस्तिकाकारमुत्तमम् ॥ १६ ॥ तत्र सपल्लवं कुम्भं मालावस्त्रसुत्रितम् । स्थापयेन्मङ्गलार्थे तु समूत्रं विधिपूर्वकम् ॥ १७ ॥