Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti

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Page 267
________________ १२८ Neww9. सोमसेनभट्टारकविरचितव्यावहारिक कामोंमें यदि किसीके साथ विवाद हो गया हो-झगड़ा पड़ गया हो, तो उसक कारण अपने हृदयमें कलुषता धारण न करे, प्रयोजनके बिना न हसे, मुखपर बारवार हाथ न फेरे, और न नाकमें वारवार उंगली ₹से ॥ १६१ ॥ भ्रूयात्कार्यं दृढीकृत्य वचनं निर्विकारतः । वृथा वृणादि न छेद्यं नांगुल्यायैश्च वादनम् ॥ १६२ ॥ किसी भी कार्यका पुख्ता विचार कर उसके विषयमें ऐसे वचन कहे जिनके सुननेसे दूसरोंके हृदयमें क्षोम पैदा न हो। बिना प्रयोजन तृण (तिनके ) आदिको न छेदे । और न व्यर्थ उगलियां चटकावे अथवा अपने शरीरपर बिना प्रयोजन हाथ उंगली आदिके द्वारा बाजा न बजावे ॥१६२ ।। मात्रा पुत्र्या भगिन्या वा नैको रहसि जल्पयेत् । आसने शयने स्थाने. याने यत्नपरो भवेत् ॥ १६३ ॥ माता, पुत्री अथवा बहिनके साथ एकान्तमें अकेला बैठकर बातचीत न करे । बैठने, सोने, खड़े रहने और सवारी आदि पर चढ़ने के समय सावधान रहे ॥ १६३ ॥ जीवधनं स्वयं पश्येत् समीपे कारयेत्कृषिम् । वृद्धान् वालाँस्तथा क्षीणान् वान्धवान्परितोषयेत् ॥ १६४ ॥ गाय, भैंस, बैल, घोडे आदि जीवित धनकी स्वयं देख-रेख रक्खे । खेती वगैरह अपने प्रामके पासमें ही करावे । बूढो, बालकों, शक्तिहीन दुर्वल और बांधवोंको सन्तुष्ट रक्खे ॥ १६४ ॥ जिनादिमतिमाया वा पूज्यस्यापि ध्वजस्य वा । छायाँ नोल्ङ्घ येनीचच्छायां च स्पर्शयेत्तनुम् ।। १६५ ॥ - जिनादि प्रतिमाकी या पूज्य जिन मंदिरपर लगी हुई ध्वजाकी छायाका उल्लंघन न करे और नीच पुरुषोंकी छायासे अपने शरीरका स्पर्श न होने दे ॥ १६५ ॥ अदानाक्षेपवैमुख्यमर्थिजनेषु नाचरेत् । अपकारिष्वपि जीवेषु ह्युपकारपरो भवेत् ॥ १६६ ॥ अर्थी जनोंको कुछ न देना, उनका तिरस्कार करना, उन्हें वापिस लौटा देना आदि कार्य न करे । अपना अपकार करनेवाले-अपना बुरा चाहनेवाले मनुष्योंपर भी उपकार ही करे ।। १६६ ॥ निद्रा स्त्रीभोगभुक्त्यध्वयानं सन्ध्यासु वर्जयेत् । साधुजनैर्विवादं तु मूखैः भीति तु नाचरेत् ॥ १६७ ॥ सन्ध्याके समय निद्रा न ले, स्त्री-संभोग न करे, भोजन न करे और न रास्ता चले । सजनोंके साथ वाद-विवाद न करे और मूखोंके साथ प्रीति न करे ॥ १६७ ॥ छात्रागारे नृपागारे शत्रुवेश्यागृहे तथा । क्रीतान्नसदने नीचार्चकागारे न भुञ्जयेत् ॥ १६८॥ . शिष्य, राजा,, शत्रु, तथा वेश्याके घरपर भोजन न करे । तथा ढाबे, होटल आदिमें, नीच पुरुषोंके यहां, और पुजारियोंके घर भोजन न करे ॥ १६८॥

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