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सोमसेनभट्टारकविरचित
mmmmmmmmmmmmonaar अनिधाय मुखे पर्ण पूगं खादति यो नरः ।
सप्तजन्म दरिद्रः स्यादन्ते नैव सरेज्जिनम् ॥ २३३ ॥ जो मनुष्य मुखमें पान न रखकर सिर्फ सुपारी खाता है वह सात जन्म तक दरिद्री होता है और मरणके समय परमात्माका नाम-स्मरण भी नहीं कर पाता ॥ २३३॥
पञ्च सप्ताष्ट पर्णानि दश द्वादश वाऽपि च ।
दद्यात्स्वयं च गृह्णीयादिति कैश्चिदुदाहृतम् ॥ २३४ ॥ पांच, सात, आठ, दश अथवा बारह पान दूसरोंको दे और इतने ही आप सावे-ऐसा भी किसी किसीका कहना है ॥ २३४ ॥
प्रथमः कुरुते व्याधि द्वितीयः श्लेष्मकारकः ।
तृतीयो रोगनाशाय रसस्ताम्बूलजो मतः ।। २३५ ।। पानका पहला रस (पीक ) व्याधि पैदा करता है, दूसरा रस श्लेष्म ( कफ ) लाता है और तीसरा रोग नाश करता है ॥ २३५ ॥
तर्जन्या चूर्णमादाय ताम्बूलं न तु भक्षयेत् ।
मध्यमामुल्यङ्गुष्ठाभ्यां खादयेच्चूर्णलोहितम् ॥ २३६ ।। तर्जनी ( अंगूठेके पासकी) उंगलीसे चूना लगाकर पान न खावे, किन्तु बीचकी उंगला और अंगूठेसे चूना लगाकर पान खावे ॥ २३६॥
ताम्बूलं कटु तीक्ष्णमुष्णमधुरं क्षारं कषायान्वितं । वातघ्नं कफनाशनं कृमिहरं दुर्गन्धिनिर्णाशनम् ॥ वक्त्रस्याभरणं विशुद्धिजननं कामाग्निसन्दीपनं ।
ताम्बूलस्य सखे त्रयोदश गुणाः स्वर्गेऽपि ते दुर्लभाः॥ २३७ ।। पान कडआ, तीक्ष्ण, उष्ण, मधुर, खारा और कषैला होता है । यह बात, कफ, कृमि ( पेटके जंतु ) और दुर्गन्धिको दूर करता है, मुखकी शोभा है, विशुद्धि पैदा करने वाला है और कामाग्निको दीपन करने वाला (बढ़ाने वाला ) है । हे मित्र ! पानमें ये तेरह गुण होते हैं । इनका स्वर्गमें भी मिलना कठिन है ॥ २३७ ॥ .
मृताशौचगते श्राद्धे मातापितृमृतेऽहनि ।
उपवासे च ताम्बूलं दिवा रात्रौ च वर्जयेत् ॥ २३८ ॥ मरणका सूतक प्राप्त होनेपर, अपने माता पिताके श्राद्धके दिन और उपवासके दिन, दिन और रातमें पान न खावे ॥ २३८॥
पात्रदाने जिनार्चायामेकभक्तवतेऽपि वा। . पारणादिवसे शुद्धे भुक्तेरादौ विवर्जयेत् ॥ २३९ ॥