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सोमसेनभहारकविरचित
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एकपंक्त्युपविष्टानां धर्मिणां सहभोजने।
यद्येकोऽपि त्यजेत्पात्रं शेपैरनं न भुज्यते ।। २२० । एक पंक्तिमें एक साथ बैठे हुए साधर्मियोंमेंसे यदि एक भी पुरुष पात्र छोड़कर उठ खड़ा हो तो बाकीके बैठे हुए साधर्मियोंको भी भोजन न करना चाहिए ॥ २२० ।
भुजानेषु च सर्वेषु योऽये पात्रं विमुञ्चति ।
स मूढः पापतां भुजेत्सर्वेभ्यो हास्यतां व्रजेत् ।। २२१ ।। अपनी पंक्तिमें बैठे हुए जितने मनुष्य भोजन कर रहे हों उनमेसे जो कोई भी पात्र छोड़कर पहले उठ खड़ा होता है वह महामूर्ख है और वह सबके हँसीका पात्र होता है-उसकी सब लोग हंसी करते हैं ॥ २२१ ॥
अग्निना भस्मना चैव दर्भेण सलिलेन च । .
अन्तरे द्वारदेशे तु पंक्तिदोषो न विद्यते ॥ २२२ ॥ . अग्नि, राख, दर्भ और पानी-इनका व्यवधान हो-ये भोजन करते हुए पुरुषों के मध्यमें रक्खे हों, तथा दरबाजे आदिका व्यवधान हो तो पंक्ति-दोष नहीं है । भावार्थ-भोजन करते समय यदि इनमेंसे किसी एकका.व्यवधान हो. तो पंक्तिसे उठ खड़े होनेमें कोई दोष नहीं है ॥ २२२ ॥
एकपंक्त्युपविष्टानामन्योऽन्यं स्पृश्यते यदि ।
भुक्त्वा चानं विशङ्कः संनष्टोत्तरशतं जपेत् ॥ २२३ ॥ एक पंक्तिमें बैठे हुए मनुष्योंका यदि परस्परमें स्पर्श हो जाय तो उस भोजनको निःशंक . होकर खावे और खा चुकनेके बाद एक सौ आठ जाप देवे ॥ २२३॥ .
पूर्व किश्चित्समुद्धृत्य स्थाल्या अन्नादिकं परम् ।
मित्राद्यर्थं स्वयं शेषमश्नीयादित्ययं क्रमः ॥ २२४ ॥ . . पहले अपनी थालीमेंसे थोड़ासा भोजन निकालकर अपने मित्र आदिके लिए जुदा रख दे। बाद अवशिष्ट भोजनको आप खावे । यह भोजन करनेका क्रम है ॥२२४ ॥
भुक्त्वा पीत्वा तु तत्पात्रं रिक्तं त्यजति यो नरः।
स नरः क्षुत्पिपासातॊ भवेज्जन्मनि जन्मनि ॥ २२५ ॥ जो मनुष्य भोजन करके या जल पी करके उनके पात्रोंको बिल्कुल खाली छोड़ देता है वह हर जन्ममें भूख-प्यासकी पीड़ा सहता है ॥ २२५ ॥
.. . अर्द्धं भवति गण्डूषमधैं त्यजति वै भुवि । . . . . . . .
शरीरे तस्य रोगाणां वृद्धि व प्रजायते ॥ २२६ ॥ .... .