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त्रैवर्णिकाचार ।
NAAMKAM
भोजन-प्रमाण। आपूर्णमुदरं भुज्ञेच्छङ्कालज्जाविवर्जितः।
अतिक्रमो न कर्तव्य आहारे धनसञ्चये ।। २१४ ॥ शंका और लज्जाको छोड़कर पेट भरे पर्यन्त भोजन करे। भोजनके करनेमें और धन इकहा करनेमें अत्यन्त लालसा न करे । भावार्थ-जब भोजन करनेको बैठे तब पेट भरकर भोजन करे । भोजन करते समय कोई तरहकी लज्जा या आशंका न करे तथा खूब अधाकर भी न खावे; क्योंकि आधिक खा लेनेसे सुस्ती आती है और निद्रा भी खूब आती है । अतः हमेशह परिमित भोजन करना चाहिए ॥ २१४ ॥
भोजनके पश्चात् करने योग्य क्रिया। ततोऽनपाचनार्थ च शीतलं तु पिवेज्जलम् ।
मुखं जलेन संशोध्य हस्तौ प्रक्षालयेत्ततः ॥ २१५ ॥ पेट भर भोजन करने के बाद भोजन पचनेके लिए थोड़ा ठंडा पानी पीवे, और मुखको जलसे साफ कर दोनों हाथ अच्छी तरह धोवे ॥ २१५ ॥
ततोऽङ्गणे पुनर्गत्वा शलाकादन्तघर्षणम् ।
कृत्वा जलेन हस्तौच पादौ प्रक्षालयेच्छुचिः ॥ २१६ ॥ फिर उठकर आँगनमें जाकर दाँतोंनसे दाँतोंको घिसे और जलसे हाथ-पैरोंको धोकर साफ करे ॥ २१६ ॥
नखाने योग्य भोजन। ब्रह्मोदने तथा चौले सीमन्ते प्रथमातवे ।
मासिके च तथा कृच्छ्रे नैव भोजनमाचरेत् ॥ २१७ ॥ बलि चढ़ाया हुआ अन्न, और चौल-संबंधी, सीमंत-क्रिया-संबंधी, गर्भाधान-संबंधी तथा मासिकश्राद्ध-संबंधी अन्न-भोजन न खावे तथा कष्टके समय भी भोजन न करे ।। २१७ ॥
गणानं गणिकानं च शूलिकानमधर्मिणः ।
यत्यन्नं चैव शूद्रान्नं नाश्नीयाद्गृहिसत्तमः ॥२१८ ॥ उत्तम गृहस्थ जो भोजन बहुतसे मनुष्योंके लिए तैयार किया जाता है उसे न खावे; तथा वेश्याका अन्न, अधर्मी पुरुषोंका अन्न, यतिका अन्न और शूद्रका अन्न भी न खावे ॥ २१८॥,
एकादशे पक्षश्राद्धे सपिण्डप्रेतकर्मसु । -
प्रायश्चित्ते न भुज्जीत भुक्तश्चेत्सञ्जपेज्जपम् ॥ २१९ ।। मरे हुए मनुष्यके ग्यारहवें दिनका, पखवाड़ेमें जो श्राद्ध होता है उसका, सपिंड प्रेतकर्मका और किसीको प्रायाश्चित्त दिया गया हो तो उस प्रायश्चित्तके समयका अन्न न खावे । यदि खा लेवे तो जाप जपे ॥ २१९ ॥ . . .
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