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सोमसेनमट्टारकविरचित
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राजानं धर्मिणं दृष्ट्वा धर्म कुर्वन्ति वै प्रजाः।
यथा प्रवर्तते राजा तथा प्रजा प्रवर्तते ॥ ५३ ॥ राजा पूर्वोक्त विधिके अनुसार देव पूजा कर, सब क्रियाओंसे स्वस्थ चित्त हो सभाम आकर सिंहासन पर विराजमान होवे। सबका न्याय-नीतिके अनुसार पालन करे । प्रजाको धर्म में आसक्त बनावे । क्योंकि प्रजाके बिना धर्मकी रक्षा नहीं हो सकती । दुष्टोंका निग्रह करे, शिष्टोंका प्रतिपालन करे और जिनेन्द्रों तथा मुनीन्दोंको नमस्कार आदि करे । राजाको धर्मात्मा देखकर प्रजा भी धर्माचरण करती है । जैसी राजाकी प्रवृत्ति होती है वैसी ही प्रजाकी हुआ करती है ॥ ५०-५३॥
सप्ताङ्गैश्च भवेद्राराजा भयाप्टकविवर्जितः ।
शक्तित्रयसमोपेतः सिद्धित्रयविराजितः ।। ५४ ॥ राजाको राज्यके सात अंगोंसे युक्त, आठ भयोंसे रहित तथा तीन तरहकी शक्ति और तीन तरहकी सिन्द्धिसे युक्त होना चाहिए ॥ ५४॥
अमात्यसुसुहृत्कोशदुर्गराष्ट्रवलानि च ।
स्वामिना सह सप्तैव राज्याङ्गानि सुखाय वै ॥ ५५॥ मंत्री, अच्छे मित्र, खजाना, किला, राष्ट्र, सेना और राजा-ये राज्यके सात अंग होते हैं । ये सातों ही अंग सुखके साधन हैं ॥ ५५ ॥
अनावृष्टयतिवृष्टयमिसस्योपघातमारिकाः।
तस्करन्याधिदुर्भिक्षा एता अष्टौ भीतयः स्मृताः ॥५६॥ अनावृष्टि, अतिवृष्टि, अग्निप्रलय, धान्य-नाश, महामारी, चोर, व्याधि, और दुर्भिक्ष-ये आठ भय माने गये हैं ॥ ५६ ॥
शाकिनीभूतवेतालरक्षःपन्नगवृश्चिकाः ।
मूषकाः शलभाः कीरा इत्यष्टौ भीतिकारकाः ॥ ५७॥ शाकिनी, भूत, बेताल, राक्षस, सांप, बिच्छू, चूहे, पतंग-कीड़े, और तोते-ये आठ भय उत्पन्न करने वाले हैं ॥ ५७॥
सुपूजायां महीपाले सर्वत्र सुखचिन्तकः ।
परमनःस्थितं ज्ञानं ज्ञात्वा चरत्यमात्यकः॥ ५८॥ जो सज्जनोंके सत्कारमें, राजामें और बाकीके सब मनुष्योंमें हितकी कामना करने वाला है और दूसरेके मनकी बात जानकर कार्य करता है उसे मंत्री कहते हैं ॥ ५८ ॥
अमुत्रात्र हितकारी धर्मबुद्धिप्रदायकः। . .
गुणवाची परोक्षेऽपि.स सुहृत्कथितो बुधैः ।। ५९ ॥ नोट-२. गिनतीमें ये नव होते हैं । इससे यथा संभव किन्हीं दोकाएकमें समावेश कर लेना चाहिये । प्र.