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सोमसेनभट्टारकविरचित
वे किसीको नीच कहना चाहेंगे, फर्ज कीजिए कि दूसरा उस-विचारको भी अच्छा समझता हो, वह उसे नीच न समझता हो । तो कहना पड़ेगा कि नीच शब्द कोई भी वाच्य न रहा । खैर, मान लो कि, किसीके ये विचार हों कि नीच ऊंचके भेदको ही मिटा देना चाहिए, तो इनके विचार ऐसे हैं जैसे किसीका विचार हो कि तमाम संसारको मद्य मांसादिका सेवन करना चाहिए । परंतु जैसे इसके इन विचारोंके लिए कुलीन बुद्धिमान पुरुषोंके हृदयमें स्थान नहीं है, उसी तरह नीच ऊंच भेदोंको मिटा देनेके विचारोंके लिये भी अनुभवी विचारशील मनुष्योंके हृदयों में स्थान नहीं है । सारांश-मद्य पीना महा घृणित कार्य है, और मद्यपायी पुरुषोंके साथ बैठकर भोजनादि करना भी अत्यन्त घृणित कार्य है ॥ १९७॥
मांस-भक्षण-निषेध। हिंसः स्वयं मृतस्यापि स्यादनन्या स्पृशन् पलम् ।।
पकापक्का हि तत्पेश्यो निगोतौषभृतः सदा ॥ १९८ ॥ . जिन गाय, भैंस, बकरे, बकरी, मछलियां आदि जीवोंको किसीने मारा नहीं है-जो काल पाकर स्वयं मर गये हैं, उनके मांसको खानेवाले या सिर्फ उसको छूनेवाले भी हिंसक-जीवोंके मारनेवाले हैं । क्योंकि पकी हुई हो, विना पकी हुई हो अथवा पक रही हो-ऐसी मांसकी डलियोंमें भी हर समय अनन्त साधारण-निगोदिया जीवॉका समूह अथवा उसी जातिके लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रियजीव उत्पन्न होते रहते हैं ॥ १९८॥
मधु-निषेध। मधुकुव्रातधातोत्थं मध्वशुच्यपि बिन्दुशः। .. ..
खादन् बनात्यसप्तग्रामदाहाहसोऽधिकम् ।। १९९ ॥ यह मधु उसके बनानेवाले भैौरे, मधुमक्खियां आदि ढेरके ढेर प्राणियोंके विनाशसे पैदा होता है । इसके अलावा इसमें भी हर समय प्राणी उत्पन्न होते रहते हैं। यह मधु उन जीवोंकी झूठन है। इसलिए यह बड़ा ही अपवित्र पदार्थ है। इसको निकालनेवाले म्लेच्छोंकी लार भी उसमें गिर पड़ती है अतः बड़ा ही तुच्छ है । जो कोई मनुष्य इस शहदकी. एक बूंद भी सेवन करता है उसे सात गांवोंके जलानेके पापसे भी अधिक पाप लगता है ॥ १९९॥, . नवनीत-निषेध ।
... - मधुवन्नवनीतं च मुश्चेत्तदपि भूयस - ... द्विमुहूर्तात्परं शश्वत्संसृजन्यनिराशयः ॥ २००॥ . मधुकी तरह मक्खन अथवा लौनीका. भी श्रावकोंको त्याग करना चाहिए । क्योंकि