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सोमसेनभट्टारकविरचित
जलोदरादिकृयूकायङ्कमप्रेक्ष्यजन्तुकम् ।
प्रेतायुच्छिष्टमुत्सृष्टमप्यश्नन्निश्यहो सुखी ॥ २०४ ॥ रात्रिमें भोजन करनेसे भोजनके साथ यदि जू खानेमें आ जाय तो वह जलोदर रोग पैदा कर देता है। यदि मकड़ी खानेमें आ जाय तो शरीरमें कोढ़ हो जाता है। यदि मक्सी खानेमें आ जाय तो वमन हो जाता है । यदि मद्किा खानेमें आ जाय तो मेदाको हानि पहुंचती है। यदि भोजनमें बिच्छू गिर पड़े तो तालुमें बड़ी व्यथा पैदा कर देता है । लकड़ीका टुकड़ा अथवा कांटा भोजनके साथ खा लिया जाय तो गलेमें रोग पैदा करता है । भोजनमें मिला हुआ बाल यदि गलेमें लग जाय तो स्वरभंग हो जाता है । इस तरह अनेक दोष रात्रिमें भोजन करनेसे उत्पन्न होते हैं। इसके अलावा कई सूक्ष्म जन्तु भोजनमें गिर पड़ते हैं, जो अन्धकारके कारण दिखते नहीं हैं उनको भी खाना पड़ता है । रात्रिके समय पिशाच, राक्षस आदि नीच व्यंतरदेव इधर उधर घूमते रहते हैं, उनका भी भोजनसे स्पर्श हो जाता है । वह भोजन भक्षण करनेके योग्य नहीं रहता है । इस तरहके अनेक दोषोंसे युक्त भोजन भी रात्रिमें भोजन करने वालों को खाना पड़ता है। तथा जिस चीजका त्याग है वह भी रात्रिमें न दिखनेसे खानेमें आजाती है । इस प्रकार रात्रिभोजनमें अनेक दोष होते हुए भी, आश्चर्य और खेद है कि, दुर्बुद्धि लोग रात्रिमें भोजन करते हुए अपनेको सुखी मानते हैं ॥ २०४॥
जल-गालन-व्रतके दोष । मुहूर्तयुग्मोर्ध्वमगालनं वा दुर्वाससा गालनमम्बुनो वा । . अन्यत्र वा गालितशेषितस्य न्यासो निपानेऽस्य न तदव्रतेऽर्च्यः ।। २०५ ॥
छने हुए पानीको दो मुहूर्त याने चार घड़ीके बाद न छानना, फटे-टे, मेले, पुराने, छोटे छेदवाले कपड़ेसे छानना, छाननेसे बाकी बचे हुए जल (जीवानी) को जिस जलाशयका वह पानी था उससे दूसरेमें लेजाकर डालना-ये सब जल गालन-व्रतके दोष हैं । भावार्थ-जिसके जल छान कर पीनेका नियम है वह यदि चार घड़ीके बाद पानी छान कर न पीवे, योग्य छन्नेसे न छाने और जीवानीको उसीके स्थानमें न पहुंचावे तो उसका वह व्रत प्रशंसनीय नहीं है ॥ २०५॥
मद्य-त्याग-व्रतके दोष। सन्धानकं त्यजेत्सर्वं दधि तक्र व्यहोषितम् ।
काञ्जिकं पुष्पितमपि मद्यव्रतमलोऽन्यथा ॥ २०६ ।। श्रावकोंको सब तरहका आचार, दो दिन-रातके बादका दही और मठा (छाछ ), जिसपर सफेद सफेद फूलन आ गई हो अथवा दो दिन-रातसे अधिक हो गई हो ऐसी कांजी नहीं खाना चाहिए । यदि वे इनको न छोड़ेंगे तो उनके मद्य-त्यांग-व्रतमें अतीचार लगेंगे ॥ २०६॥