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सोमसेनभट्टारकाविरचित -
मरे हुए प्राणियोंके कलेवर, नाखून, गोबर, राख चिपटा हुआ अन्न देख लेनेपर, बिल्ली, आदिका उपद्रव होनेपर, प्राणियों के दुर्वचन सुनाई देनेपर, कुत्तोंकी आवाज सुन लेनेपर, परस्परमें लड़नेकी आवाज आने पर, सूकरकी बोली सुन लेनेपर, पीड़ाके कारण किसीके रोने की आवाज सुनाई देनेपर, ग्राम में आग लग जानेपर, फलाँका शिर कट गया इसतरहके शब्द सुनने पर, लड़ाई वगैरहमें प्राणियों के मरनेकी आवाज सुननेपर, त्याग किये हुए भोजनके खा लेनेपर, पहले उत्पन्न हुए दुःखसे अपनेको रुलाई आनेपर, अपनेको टट्टीकी आशंका होनेपर, छींक आनेपर, वमन होनेपर, पेशाब आ जानेपर, दूसरे के अपने को मार देनेपर, गीला चमड़ा, हड्डी, मांस, खून, पीप, मदिरा मधुका दर्शन किंवा स्पर्श हो जानेपर, जली हुई हड्डी केश चमड़ाका दर्शन स्पर्श हो जानेपर, ऋतुमती और प्रसूता स्त्रीका दर्शन या स्पर्शन हो जानेपर, मिथ्यादृष्टि और मैले कुचैले कपड़े पहने हुए मनुष्य के दृष्टिगत या स्पर्श हो जानेपर, बिल्ली, चूहे, कुत्ते, गायें, घोड़े, आदि तथा अत्रती बालकका स्पर्श हो जानेपर और भोजन में जिंदे जिन्हें भोजनसे अलहदा नहीं कर सकते ऐसे अथवा मरे हुए चींटी आदि जीवोंके गिर पड़नेपर भोजन छोड़ दे । तथा यह मांस है, टट्टी है, खून है— इस तरहकी भोजनमें कल्पना हो जानेपर भोजन छोड़ दे ॥ १८६-१९३॥
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त्याज्य भोजन ।
मद्यमांसमधून्युज्झेत्पञ्चक्षीरफलानि च ।
अष्टैतान् गृहिणां मूलगुणान् स्थूलवधाद्विदुः ॥ १९४ ॥
मद्य, मांस, मधु और पंच उदुंबर फलोंको भक्षण करनेका त्याग करे | इन आठोंके त्यागको श्रावकों के आठ मूलगुण बोलते हैं । इनके त्यागनेसे स्थूल वधसे विरति अर्थात् स्थूल - हिंसा का त्याग हो जाता है ॥ १९४ ॥
पिप्पलोदुम्बरप्लक्षवटपीलुफलान्यदन् ।
हन्त्यार्द्राणि त्रसान् शुष्कान्यपि स्वं रागयोगतः ॥ १९५ ॥
पीपल, ऊमर ( गूलर ), पाकर, बड़ और कठूमर ( काले गूलर अथवा अंजीर ) इन पांचों वृक्षोंके हरे फल खानेवाला श्रावक सूक्ष्म और स्थूल- दोनों तरहके त्रस जीवोंकी हिंसा करता है । और अधिक दिन पड़े रहनेसे जिनमेंके सजीव नष्ट हो गये हैं- ऐसे सूखे हुए इन फलोंको जो खाता है वह भी रागयुक्त होनेके कारण अपनी हिंसा करता है । भावार्थ - हिंसा दो तरह की है - एक द्रव्य - हिंसा और दूसरी भाव - हिंसा । अपने अथवा दूसरेके बाह्य प्राणोंका घात करना द्रव्य - हिंसा है; और भाव प्राणोंका नाश करना भाव - हिंसा है । अपने रागद्वेषादि भावों की उत्पत्ति होना अथवा परको क्रोधादि उत्पन्न कराना भी भाव-हिंसा है । इन फलोंके खानेसे दोनों तरहकी हिंसा होती है । इनमें रहनेवालेजीवों के प्राणोंका घात होता है, इसलिए द्रव्य - हिंसा है । और खानेवालेकी आत्मामें अत्यन्त रागभाव है, इसलिये भाव-हिंसा है । आत्माका स्वभाव रागद्वेषादि-रहित शुद्ध स्फटिकरूप निर्मल है ।