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त्रैवर्णिकाचार। ..
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भोजनके योग्य चौकेकी रचना । चतुरस्र त्रिकोणं च वर्तुलं चार्धचन्द्रकम् ।
कर्तव्यमानुपूर्येण मण्डलं ब्राह्मणादिषु ॥ १६४ ॥ ब्राह्मणांका चौका चौकोन, क्षत्रियोंका त्रिकोण और वैश्योंका गोल अथवा अर्धचन्द्राकार होना चाहिए ॥ १६४ ॥
यातुधानाः पिशाचाच त्वसुरा राक्षसास्तथा ।
घ्नन्ति ते बलमन्नस्य मण्डलेन विवर्जितम् ॥ १६५ ।। चौकेके बिना भोजन करनेसे यातुधान (भूत), पिशाच, असुर तथा राक्षस भोजनकी शक्तिको नष्ट कर देते हैं । इसलिए चौका बनाकर उसमें बैठकर ही भोजन करना चाहिए ॥१६५॥
__ भोजनके योग्य वर्त्तन। भोजने भुक्तिपात्रं तु जलपात्रं पृथक् पृथक् ।
श्रावकाचारसंयुक्ता न भुञ्जन्त्येकभाजने ॥ १६६ ॥ भोजनमें भोजनपात्र और जलपात्र अलहदे २ होने चाहिए । श्रावकगण एक थालीमें बैठकर भोजन न करें ।। १६६ ॥
एक एव तु यो भुंक्ते विमले कांस्यभाजने ।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुः प्रज्ञा यशो बलम् ।। १६७ ।। जो पुरुष अकेला ही निर्मल कांसीके वर्तनमें भोजन करता है उसकी आयु, प्रज्ञा, यश और बल-ये चारों बढ़ते हैं ॥ १६७॥
पलाद्विशतिकादर्वागत ऊर्ध्वं यदृच्छया।
इदं पात्रं गृहस्थानां न यतिब्रह्मचारिणाम् ।। १६८ ।। भोजन करनेका वर्तन ( थाली) वीस पल ( अस्सी तोले ) के भीतर भीतर होना चाहिए। अथवा इससे ऊपर चाहे जितना हो । यह पात्रका प्रमाण गृहस्थोंके लिए है, यति-ब्रह्मचारियोंके लिए नहीं ॥ १६८॥
पञ्चाो भोजनं कुर्यात्प्राङ्मुखोऽसौ समाश्रितः।।
हस्तौ पादौ तथा चास्यमेपु पश्चाता स्मृता ॥ १६९ ॥ गृहस्थ पूर्वकी ओर मुखकर पंचाई भोजन करे । दोनों हाथ, दोनों पैर और एक मुख इन पांचोंको पंचाईता कहते हैं। इन पांचों अंगोंको धोकर भोजन करे ।। १६९ ।।