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त्रैवर्णिकाचार |
पद्भ्यां गन्तुमशक्ताय पूजामंत्रविधायिने । तीर्थक्षेत्रसुयात्रायै रथाश्वदानमुच्यते ॥ १३२ ॥
जो पैरोंसे चलने में असमर्थ है और जिनपूजा मंत्र आदि श्रावक के कर्तव्योंका मुस्तैदी से पालन करता है उसको तीर्थक्षेत्रों की यात्रा करनेके लिए रथदान अश्वदान आदि देना चाहिए ॥ १३२ ॥
भट्टादिकाय जैनायकीर्तिपात्राय कीर्तये
हस्तिदानं परिप्रोक्तं प्रभावनाङ्गहेतवे ॥ १३३ ॥
जैन धर्मावलंबी ब्राह्मण भाट आदि कीर्ति पात्रोंको कीर्तिके लिए प्रभावना के कारण हाथीदान करना चाहिए || १३३ ॥
दुर्घटे चिकटे मार्गे जलाश्रयविवर्जिते ।
प्रपास्थानं परं कुर्याच्छोधितेन सुवारिणा ॥ १३४ ॥
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जो मार्ग दुर्घट है पर्वत वृक्ष पत्थर आदिके कारण बिकट हो रहा है। जिसमें जलाशय कुआ, बावड़ी आदि नहीं है ऐसे मार्गमें छने पानीकी प्याऊ लगानी चाहिए ॥ १३४ ॥
अन्नसत्रं यथाशक्ति प्रतिग्रामं निवेशयेत् ।
शीतकाले सुपात्राय वस्त्रदानं सतूलकम् ।। १३५ ।।
अपनी शक्तिके अनुसार हरएक गांवमें भोजनशाला खोलना चाहिये और शर्दीकी मोसिममें गरीब सज्जन पुरुषों को रुईके कपड़े बनवादेना चाहिए ॥ १३५ ॥
जलान्नव्यवहाराय पात्राय कांस्यभाजनम् ।
महाव्रतियतीन्द्राय पिच्छं चापि कमण्डलुम् ॥ १३६ ॥
पात्रोंके लिए खाने और पीनेके लिए कांसी आदिके वर्तन देवे । तथा महावती मुनियोंके लिए पिच्छि- कमंडलु देवे ॥ १३६ ॥
जिनगेहाय देयानि पूजोपकरणानि वै ।
पूजामन्त्रविशिष्टाय पण्डिताय सुभूषणम् ॥ १३७ ॥
जिनमन्दिरमें जिनभगवानकी पूजाके लिए पूजाके वर्तन और पूजाकरनेवाले तथा मंत्र तंत्र विशिष्ट पंडितके लिए भूषण वगैरहं देना चाहिए ॥ १३७ ॥ .