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त्रैवर्णिकाचार।
सेवापात्रका लक्षण। सेवापानं भवेद्दासीदासभृत्यादिकं ततः।।
तस्य देयं पटाद्यन्नं यथेष्टं च यथोचितम् ॥ ११६ ॥ दास-दासी, नोकर-चाकर वगैरह सेवा पात्र हैं इसलिए इनको इनकी योग्यताके अनुसार, इन्हें जेसा इष्ट हो वस्त्र अन्न आदि पदार्थ देवे ॥ ११६ ॥
दयादान। दयाहेतोस्तु सर्वेषां देयं दानं स्वशक्तितः ।
गोवत्समाहिपीणां च जलं च तृणसञ्चयम् ॥ ११७ ॥ दयाके निमित्त अपनी शक्तिके अनुसार समीको दान देना चाहिए । गाय भेंस आदिको जल और घास देना चाहिए । भावार्थ-जो श्रावक भारी आरंभमें प्रवर्तित है वह पिंजरापोल आदि संस्थाएं सोल कर गो आदिकी रक्षा करे और अन्धे लूले अपाहिज पुरुषों के लिए अन्न शाला प्याऊ आदि बनवावे । तथा वती आवक अपने योग्य दयादान करें ॥ ११७ ॥
जुदे जुदे दानोंके फल। पात्रे धर्मनिवन्धनं तदितरे श्रेष्ठं दयाख्यापकं मित्रे प्रीतिविवर्धनं रिपुजने वैरापहारक्षमम् । भृत्ये भक्तिभरावहं नरपतौ सन्मानसम्पादक
भट्टादौ तु यशस्करं वितरणं न काप्यहो निष्फलम् ॥ ११८ ॥ पात्रांको दान देनेसे पुण्यवन्ध होता है, पात्रोंके अलावा अन्य दुःखी जीवोंको दान देनेसे यह बड़ादयाल है इस प्रकारकी नामवरी होती है, मित्रको दान देनेसे प्रीति बढ़ती है, अपने दुश्मनोंको दान देनेले वैरका नाश होता है, नोकरको दान देनेसे वह अपने भक्ति करता है, राजाको देनेसे राज-दरबारमें तथा अन्यत्रभी सत्कार होता है और भाट ब्राह्मण आदिको देनेसे यश फैलता है इस लिए किसीको भी दिया हुआ दान निष्फल नहीं होता । अत: अपनी शक्तिके अनुसार अवश्य दान करना चाहिए ॥११॥
सुप्तोत्तानशया लिहन्ति दिवसान् स्वांगुष्ठमार्यास्ततः .. कौ रङ्गन्ति ततः पदैः कलगिरो यान्ति स्खलद्भिस्ततः । स्थेयोभिश्च ततः कलागुणभृतस्तारुण्यभोगोद्गताः सप्ताहेन ततो भवन्ति सुहगादानेऽपि योग्यास्ततः॥ ११९ ॥