________________
त्रैवर्णिकाचार।
१७७
धर्म पात्रके तीन भेद हैं । जघन्य, मध्यम और उत्तम । जिनको, परलोकमें सुखदेनेवाला दान सदा देना चाहिए ॥ १०६ ॥
जघन्य पात्रका लक्षण । सम्यग्दृष्टिः सदाचारी श्रावकाचारतत्परः ।
गुरुभक्तश्च निर्गर्यो जघन्यं पात्रमुच्यते ॥ १०७ ॥ जो सम्यग्दर्शनसे युक्त है, सदाचारी है, श्रावकाचारके पालनेमें तत्पर है, गुस्में जिसकी भक्ति है और विनयी है उसे जघन्य पात्र कहते हैं । भावार्थ-अविरत सम्यग्दृष्टि श्रावक जघन्य पात्र है। श्रावकाचारमें तत्पर है इसका अभिप्राय यह है कि श्रावकपनेके मुख्य मुख्य चिन्ह जैसे रात्रिमें न खाना, जल छान कर पीना, जिन पूजा करना, मद्य मांस मधु और अभक्ष्य भक्षण न करना आदि ॥ १०७॥
मध्यम पात्रका लक्षण । ब्रह्मचर्यव्रतोपेतो गृहस्थारम्भवर्जितः ।
अल्पपरिग्रहैर्युक्तो मध्यमं पात्रमिष्यते ॥ १०८ ॥ जो ब्रह्मचर्य व्रतसे युक्त है, गृहस्थ सम्बन्धी आरम्भसे रहित है और जिसके पास थोड़ा परिग्रह है उसे मध्यम पात्र कहते हैं । भावार्थ-प्रथम प्रतिमासे लेकर ग्यारहवीं प्रतिमातकके देशविरति आवक मध्यमपात्र हैं ॥ १०८ ॥
उत्तम पात्रका लक्षण। अष्टाविंशतिसंख्यातमूलगुणयुतो व्रती। सर्वैः परिग्रहमुक्तः क्षमावान् शीलसागरः ।। १०९ ।। मित्रशत्रुसमध्यानी ध्यानाध्ययनतत्परः ।
मुक्त्यर्थी तिपदाधीशो ज्ञेयं हुत्तमपात्रकम् ॥ ११० ॥ जो अठाईस मूलगुणोंसे युक्त है, सब तरहके परिग्रहोंसे रहित है, क्षमावान है, शीलका सागर है, मित्र और शत्रुको एक दृष्टिसे देखता है-दोनोंमें समभाव है, ध्यान और अध्ययनमें तत्पर है, मुक्ति चाहनेवाला है और रत्नत्रयका स्वामी है उसे उत्तम पत्र जानना ॥ १०९॥ ११० ॥
जघन्यादित्रिपात्रेभ्यो दान देयं सुधार्मिकैः । ऐहिकामुत्रसम्पत्तिहेतुकं परमार्थकम् ॥ १११ ॥