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त्रैवर्णिकाचार।
जो देवों और राजाओंकी विभूतिरूपी अमृतकी नदीके निकलनेका कुलपर्वत है, जिनप्रति माओंसे अत्यन्त शोभायमान है, जिसके शिखरपर जो धुजाएं फर्रा रही हैं वे ऐसी जान पड़ती हैं मानों बड़े बड़े फलोंके मारसे झुकहुए धर्मरूपी कल्पवृक्षकी नवीन कोमल कौंपलें ही चारों ओर फल रही हो और जो लक्ष्मीका निवास स्थान है ऐसा श्रीजिनमन्दिर जयवंत रहे ॥ ४९ ॥
मन्दिर प्रवेश। इत्यादिवर्णनोपेतं जिनेन्द्रभवनं गृही।
गत्वोपविश्य शालायां पादौ प्रक्षालयेत्ततः ॥५०॥ इत्यादि वर्णनासे युक्त श्री जिनमन्दिर में जावे और स्नानशालामें बैठ कर पैर धोवे ॥ ५० ॥ वारत्रयं चेतसि निःसहीति शब्दं गिरा कोमलया नितान्तम् । समुच्चरन् द्वारत एव भक्त्या जैनं निरीक्षेत दृशा सुबिम्बम् ॥ ५१ ॥
श्री जिनमंदिर के दरवाजेमें प्रवेश करतेही अपने निर्मल हृदयमें तीन बार निसही इस शब्दका अत्यन्त कोमल वाणीद्वारा उच्चारण करता हुआ श्री जिनप्रतिबिंबका अपने नेत्रोंसे निरीक्षण करे ॥५१॥
त्रि परीत्य जिनविम्बमुत्तमं हस्तयुग्ममुपधाय भालके ।
निन्दयनिजमनेकदोपतः स्वैर्गुणैर्जिनवरं स्तुयात्सुखम् ॥५२॥ बाद श्री जिनबिंबके तीन प्रदक्षिणा (परिक्रमा) लगा कर दोनों हाथोंको सिरपर रख कर नमस्कार करे । और अपनी अनेक झोपोंसे भरपूर निन्दा करता हुआ उत्तम गुणोंद्वारा श्री जिनेन्द्रका यशोगान करे ॥५२॥
द्वारपालाँश्च सन्मान्य हीनाधिकान्स्वतःपरान् ।
कृत्वाऽन्तर्वामभागेषु स्थित्वा संस्तूयते जिनः ॥५३॥ इसके बाद, द्वारपालोंका सत्कार करे और अपनेसे भिन्न जो दर्शक गण हैं उन्हे बाई और लेकर भीतर गर्भागारमें जावे और वहांपर खड़ा रह कर श्री जिनदेवकी इस प्रकार स्तुति पढ़े (१) ॥ ५३॥
श्रीजिन-स्तुति । शान्तं ते वपुरेतदेव विमलं भामण्डलालंकृतं वाणीयं श्रुतिहारिणी जिनपते ! स्याद्वादसद्दर्शना । वृत्तं सर्वजनोपकारकरणं तस्मात् श्रुतज्ञाः परे त्वामेकं शरणं प्रयान्ति सहसा संसारतापच्छिदे ।। ५४ ॥