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त्रैवर्णिकाचार |
चार भेद हैं, पांचवां भेद चतुर्मुख भी है ॥ ७५ ॥
नित्यमह पूजाका लक्षण |
प्रोक्तो नित्यमहोऽन्वहं निजगृहानीतेन गन्धादिना पूजा चैत्यगृहेऽर्हतः स्वविभवाचैत्यादिनिर्मापणम् । भक्त्या ग्रामगृहादिशासनविधा दानं त्रिसन्ध्याश्रया सेवा स्वेऽपि गृहेऽर्चनं च यमिनां नित्यमदानानुगम् ॥ ७६ ॥
प्रतिदिन अपने घर से गन्ध पुष्प अक्षत आदि पूजाकी सामग्री ले जाकर चैत्यालय में जिन भगवानकी पूजा करना, अपनी सम्पत्ति के अनुसार जिनबिंब जिनमंदिर आदि बनवाना, मन्दिर आदि के कार्य निर्विघ्न चलते रहनेके लिए भक्तिपूर्वक राजनीतिके अनुसार स्टॉम्प आदि लिखकर अथवा रजिस्टर्ड करा कर गांव घर खेत दुकान आदि देना, अपने घर अथवा जिनमंदिरमें सबेरे दोपहर और शामको तीनों समय नित्य अरहंत देवकी आराधना करना और मुनियोंको प्रतिदिन आहार देकर उनकी पूजा करना, ये सब अलग अलग नित्यमह कहलाते हैं ॥ ७६ ॥
आष्टान्हिक और इंद्रध्वज पूजाका लक्षण ।
जिनाच क्रियते सद्भिर्या नन्दीश्वरपर्वणि । आष्टान्हिकोऽसौ सेन्द्राद्यैः साध्या त्वैन्द्रध्वजो महः ॥ ७७ ॥
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नन्दीश्वर पर्वके दिनोंमें अर्थात् प्रतिवर्ष आषाढ़ कार्तिक और फाल्गुन महनिकै शुक्लपक्षकी अष्टमी पौर्णिमा तक अन्तके आठ दिनोंमें जो अनेक भव्यजन मिलकर अरहंत देवकी पूजा करते हैं। उसे आष्टाह्निक मह कहते हैं और इंद्र प्रतीन्द्र आदि जो पूजा करते हैं उसे इन्द्रध्वज मह कहते हैं ॥ ७७ ॥
चतुर्मुखमहका लक्षण ।
भक्त्या मुकुटबद्धैर्या जिनपूजा विधीयते । तदाख्यः सर्वतोभद्रश्चतुर्मुखमहामखः ॥ ७८ ॥
बड़े बड़े मुकुटबद्ध राजाओंके द्वारा जो भक्ति भावसे पूजा की जाती है उसका नाम चतुर्मुख सर्वतोभद्र और महामह है । यह पूजा प्राणिमात्रका भला करनेवाली है इसलिए इसे सर्वतो भद्र, चार दरवाजेवाले मण्डपमें की जाती है इसलिए चतुर्मुख और अष्टाह्निक मह की अपेक्षा बड़ी है इसलिए महामह कहते हैं ॥ ७८ ॥