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सोमसेनभट्टारकविरचित
वामहस्तेन सन्धार्य वस्त्रमा निपीडयेत् ।
स्वहस्तेन स्वजातीयहस्तेन प्राणियत्नतः ॥ ५ ॥ गीले कपड़ेको बायें हाथसे पकड़कर निचोड़े । और अपने हाथसे निचोड़े अथवा अपने किसी सजाति मनुष्यसे निचुड़वावे । कपड़ा ऐसे यत्नके साथ निचोड़ना चाहिए जिससे दूसरे प्राणियोंको बाधा न पहुंचे ॥ ५१॥
स्नानके भेद। मान्त्रं भौमं तथाऽऽग्नेयं वायव्यं दिव्यमेव च ।
वारुणं मानसं चैव सप्त स्नानान्यनुक्रमात् ॥ ५२ ॥ मंत्रस्नान, भूमिस्नान, अग्निस्नान, वायुस्नान, दिव्यस्नान, जलस्नान और मन्त्रस्नान ऐसे सात तरहके स्नान होते हैं ॥ ५२ ॥
प्रातःस्नाने त्वशक्तश्चेन्मार्जयेदाईवाससा ।
उत्तमाङ्गादिपादान्तं स भवेत्स्नानकृद्गृही ॥ ५३ ॥ यदि कोई सुबहके समय स्नान करनेको असमर्थ है तो वह गीले कपड़ेसे सिरसे परातेक सर्व शरीरको पोंछ ले । इस तरह करनेवाला भी गिरस्त, स्नान किये सरीखा ही है ॥ ५३॥
आपः स्वभावतः शुद्धाः किं पुनर्वह्नितापिताः ।
अतः सन्तः प्रशंसन्ति स्नानमुष्णेन वारिणा ॥ ५४॥ जल स्वभावसे ही शुद्ध होता है । यदि वह गर्म कर लिया जाय तो और भी शुद्ध हो जाता है । अतः सज्जन लोग गर्म जलसे स्नान करना अच्छा समझते हैं ॥ ५४ ॥
अभ्यो चैव माङ्गल्ये गृहे चैव तु सर्वदा ।
शीतोदकेन न स्नायान धार्य तिलकं तथा ॥ ५५ ॥ तेलकी मालिश की हो या कोई मांगलिक कार्य हो या घरहीमें स्नान करना हो तो कमी भी ठंडे जलसे न नहावे, तथा नहाये वगैरह तिलक न लगांवे ॥ ५५ ॥
शीतास्वप्सु निक्षिपेन उष्णमुष्णासु शीतकम्। .
तामिः स्नाने कृते प्रोक्तं प्रायश्चित्तं जिनागमे ॥५६ ।। ठंडे जलमें गर्म जल और गर्म जलमें ठंडा जल मिलाकर स्नान-न करे । कारण कि इस मिश्रित जलसे स्नान करनेवालेके लिए जैनशास्त्रोंमें प्रायश्चित्त बताया गया है ॥ ५६ ।।