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त्रैवर्णिकाचार
जाती पुष्पसहस्राणि जप्त्वा द्वादश सद्दशः । विधिना दत्तहोमस्य विद्या सिद्धयति वर्णिनः ॥ ४ ॥
उक्त मंत्र के जाति पुष्पोंद्वारा बारह हजार जाप करनेसे विधिपूर्वक होम करनेवाले सम्यग्दष्टि ब्रह्मचारीको विद्या ( कर्णपिशाचनी मंत्र. ) सिद्ध होती है ॥ ४ ॥
सानाहते मूर्तिमुखज्योतिःखीकारधीरिमाम् ।
जपन् शृणोति च पश्यत्यपि जाग्रच्छुभाशुभम् ।। ५ ।।
अनाहत मंत्र युक्त ह्रीँ इस अक्षरके मस्तकपर जिसके मुखकी ज्योति है और जिसका स्त्री जैसा आकार है ऐसे इस कर्णपिशाचेनी मंत्र का जाप करनेवाला पुरुष अपने भावी शुभ-अशुभको जानता है और प्रत्यक्ष देखता है ॥ ५ ॥
जिन मन्दिरकी भूमिका लक्षण.
भूपातालक्षेत्रपीठवास्तुद्वारशिलाचनाः ।
कृत्वा नरं प्रविश्याच न्यस्यात्वारोपयेध्वजम् ॥ ६ ॥ जैन चैत्यालयं चैत्यमुत निर्मापयेच्छुभम् । वाञ्च्छन् स्वस्थ नृपादेश्व वास्तुशास्त्रं न लङ्घयेत् ॥ ७ ॥
भूपाताल, ( मंदिरकी नीब ) क्षेत्र, पीठ, वास्तु, द्वार, और शिला इनकी पूजा कर पुतला रखकर उसकी पूजा करें और यहाँपर ध्वजारोपण करे। अपने ओर 'राजा - प्रजाको शुभ की कामना करता हुआ जिन चैत्यालय और जिन प्रतिमा बनवावे । तथा वास्तु शास्त्रका उल्लंघन न करे अर्थात् सब विधि वास्तुशास्त्र के अनुसार करे ॥ ६ ॥ ७ ॥
रम्
at सुगन्धादिदूर्वाद्याढ्यां' स्वतः शुचिम् | जिनजन्मादिना वास्मै स्वीकुर्याद्भूमिमुत्तमाम् ||८||
जो उत्तम रमणीय स्थान में हो, स्निग्ध हो, सुगन्ध: आदि. या दूर्वा . ( दून) आदि संयुक्त हो, स्वयं पवित्र हो, अथवा जिनेन्द्र के पंचकल्याण आदिसे पवित्र हो ऐसी उत्तम जमीन जिन मन्दिर बनवानेके लिये स्वीकार करे - पसन्द करे ॥८॥ .
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उत्तम मध्यम और जघन्य भूमिका परीक्षा.
खत्वा हस्तमधः पूर्णे गर्ते तेनैव पांसुना । तदाधिक्यसमो नत्यैः श्रेष्ठा मध्याऽधमा च भूः ॥९॥