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. . त्रैवर्णिकाचारः ।
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उपाकर्म, उत्सर्गः: प्रातःकालीन स्नान, चन्द्रग्रहण और सूर्य ग्रहण इन समयोंमें रजोदोष नहीं होता ॥ ७९ ॥
धनुस्सहस्राण्यष्टौ तु गतिर्यासां न विद्यते। .....
: न ता नद्यः समाख्याता गास्ताः परिकीर्तिताः॥ ४०॥ .. जो नदियाँ आठ हजार धनुष लम्बी नहीं हैं वे नदियाँ नहीं हैं, उन्हें एक तरहका गढ़ा कहना चाहिए ।। ८० ॥
दर्भविधि। कुशाः काशा यवा दूर्वा उशीराश्च कुकुन्दराः।
गोधूमा ब्रीहयो मुंजा दश दर्भाः प्रकीर्तिताः ॥ ८१॥ कुश, कोश, जो, दूब, उशीर (तृणविशेष ) ककुंदर, गेहूँ, बीहि ( शाल ) और पूँज इस प्रकार दस तरहके दर्भ होते हैं ॥ ८१ ॥
नभोमासस्य दर्शे तु शुभ्रान् दर्भान् समाहरेत् । .
अयातयामास्ते दर्भा नियोज्या सर्वकर्मसु ।।.८२ ॥ सावन विदी अमावसके दिन स्वेत दर्भ लावे । और वे लाये हुए दर्भ ही सम्पूर्ण क्रियाओंमें ग्रहण किये जावें ॥ ८२॥
कृष्णपक्षे चतुर्दश्यामानेतन्या कुशा द्विजैः। .
अकालिकास्तथा शुद्धा अत ऊर्ध्वं विगर्हिताः ॥ ८३ ॥ यदि अमावसके दिन न लाकर पहले लाने हों तो विदी चतुर्दशीको 'कुश-दर्भ लाने चाहिए। जो नियत समयमें लाये जाते हैं वे ही ठीक होते हैं, अन्य नहीं ॥ ८३ ॥
शुद्धिमन्त्रेण सम्मन्त्र्य सकृच्छित्वा समुद्धरेत् । .
अच्छिन्नाया अशुष्काग्राः पूजार्थ हरिताः कुशाः ॥ ८४ ॥ ___ शुद्धिके मंत्रसे अभिमंत्रण कर दर्भीको जमीनमेंसे उपाड़ना चाहिए । तथा जिनकी नोके टूटी हुई और सूखी हुई नहीं हैं ऐसे हरे दर्भ ही पूजांके योग्य होते हैं ।। ८४ ॥
कुशालाभे तु काशाः स्युः काशाः कुशमयाः स्मृताः । " काशाभावे गृहीतव्या अन्ये दर्भा यथोचितम् ॥ ८५ ॥