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सोमसेनभट्टारकविरचित
कुश अर्थात् दर्भ यदि न मिले तो कांशसे ही सब क्रिया करे । क्योंकि कांश भी कुशोहीके तुल्य हैं । यदि कांश भी न मिले तो और जो दर्भ बताये गये हैं उनसे काम लिया जाय १८५॥
धर्मकृत्येषु सर्वेषु कुशा ग्राह्याः समाहिताः। । दूर्वाः श्लक्ष्णाः सदा ग्राह्याः सर्वेषु शुभकर्मसु ॥ ८६ ॥ सभी धार्मिक कार्मों में कुश अवश्य ही ग्रहण किये जाने चाहिए । तथा सब तरहके शुभ कार्योंमें ताजा दूब ग्रहण की जाय ॥ ८६ ॥
निषिद्ध दर्भ। ये त्वन्तमिता दर्भा ये छेद्या नखरैस्तथा।
कुथिताश्चाग्निदग्धाश्च कुशा यत्नेन चर्जिताः ॥ ८७ ॥ ऐसे दर्भ काममें न लिये जायँ जिनका भीतरी भाग खराब हो गया हो, जो नखादिसे छिन्न भिन्न किये गये हों, मसले हुए हों तथा जले हुए हों ॥ ८७ ॥
अमावास्यां न च छिद्यात्कुशांश्च समिधस्तथा।।
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां पंचम्यां धर्मपर्वसु ॥ ८८ ॥ अमावसके रोज कुश न उखाड़े और पीपल वगैरहकी लकड़ी भी न तोड़े । तथा अष्टमी, चतुर्दशी, पंचमी आदि पर्वदिनमें भी कुश वगैरह न उखाड़े। भावार्थ-सावन विदी १५ अथवा विदी चतुदर्शीको छोड़ कर अन्य पौंमें दर्भ तथा समिधा तोड़कर न लावे ॥ ८८ ॥
समित्पुष्पकुशादीनि श्रोत्रियः स्वयमाहरेत् ।
शूद्रानीतैः क्रयक्रीतैः कर्म कुर्वन्त्रजत्यधः ॥ ८९ ॥ समिधा, फूल, कुश आदि वस्तुओंको स्वयं जाकर लावे । शूद्रोंके द्वारा लाये हुए या पैसा देकर खरीदे हुए कुशादिकों द्वारा कर्म करनेवाला गिरस्ती नीच स्थानको प्राप्त होता है।।८९॥
पवित्रकका लक्षण। चतुभिर्दर्भपिञ्जुलैाह्मणस्य पवित्रकम् ।
एकैकन्यूनमुद्दिष्टं वर्णे वर्णे यथाक्रमम् ॥ ९०॥ ब्राह्मणोंका चार दर्भोसे, क्षत्रियोंका तीन दर्भो और वैश्योंका दो दर्भोसे पवित्रक होता है। दर्भोके समूहको पवित्रक कहते हैं ॥ ९० ॥