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सोमसेनभट्टारकविरचित
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चैत्यालयप्रवेश। गत्वा तत्र जिनागारं शनैः स्थित्वा बहिःस्थले । पादौ प्रक्षाल्य संशोध्य सम्यगोर्यापथं क्रमात् ।। ३०॥ निःपरीत्य जिनेन्द्रस्य गेहं चान्तर्विशेबुधः ।
मुखवस्त्रं समुद्घाट्य जिनवक्त्रं विलोकयेत् ॥ ३१ ॥ वह जलाशय पर स्नान कर आया हुआ गिरस्त अपने मकानमें बने हुए चैत्यालयमें जावे और बाहर आँगनमें खड़ा रहकर पैर धोवे । इसके बाद ईर्यापथ पूर्वक चैत्यालयकी तीन प्रदक्षिणा देकर मन्दिरमें प्रवेश करे । तथा प्रतिमाके सामनेके पड़देको एक तरफ हटा श्रीजिनदेवके मुख-कमलका दर्शन करे और इस प्रकार स्तुति पढ़े ॥ ३० ॥ ३१ ॥
जिनदर्शनस्तवन। दर्शनं जिनपतेः शुभावहं सर्वपापशमनं गुणास्पदम् ।
स्वर्गसाधनमुशन्ति साधवो मोक्षकारणमतः परं च किं ॥ ३२ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन कल्याणका करनेवाला है, सभी तरहके पापोंका उपशम करनेवाला है और गुणोंका अपूर्व खजाना है, ओर तो क्या जिसे बड़े बड़े साधु महात्मा स्वर्ग और मोक्षका साधन बनाते हैं ॥ ३२ ॥
दर्शनं जिनरः प्रतापवञ्चित्तपद्मपरमप्रकाशकम् ।
दुष्कृतैकतिमिरापहं शुभं विघ्नवारिपरिशोषकं सदा ।। ३३ ॥ हे जिनरवे ! यह आपका दर्शन सूर्यकी तरह हृदय-कमलका विकास करनेवाला है, पाप रूपी निविड़ अन्धकारको छिन्न भिन्न करनेवाला है, शुभ है और विघ्न रूप जलका सोखनेवाला है ॥ ३३ ॥
दर्शनं जिननिशापतेः परं जन्मदाहशमनं प्रशस्यते। .
पुण्यनिर्मलसुधाप्रवर्षणं वर्धनं सुरुपयोनिधेः सतः ॥ ३४ ॥ है जिनचंद्र ! यह आपका दर्शन जन्मदाहका शमन करनेवाला है, पुण्य-निर्मल अमृतको बरसानेवाला है और सज्जनोंके सुख-समुद्रको बढ़ानेवाला है ॥ ३४॥
दर्शनं जिनसुकल्पभूरुहः कल्पितं हि मनसा प्रपूरयेत् । ।
सर्वलोकपरितापनाशनं पंफुलीति फलतो महीतले ॥ ३५: ।। हे जिनेन्द्र रूप कल्पवृक्ष ! यह आपका दर्शन मनोवाञ्छित चीजोंको पूरनेवाला है,