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सोमसेनभट्टारकविरचित
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ततः ॐ ही अर्ह अर्हत्सिद्ध केवलिभ्यः स्वाहा ॥ ॐ हाँ पञ्चदशतिथिदेवेभ्यः स्वाहा ॥ ॐ वहीँ नवग्रहदेवेभ्यः स्वाहा ॥ ॐ हाँ द्वात्रिंशदिन्द्रेभ्यः स्वाहा ॥ ॐ ही दशलोकपालेभ्यः स्वाहा ॥ ॐ ही अभीन्द्राय स्वाहा || पडेतान् मन्त्रानष्टादशकृत्वः पुनरावर्तनेनोचारयन् सुवेण प्रत्येकमाज्याहुतिं कुर्यादित्याज्याहुतयः ॥ ४९ ॥
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इसके बाद, " ॐ ह्रीँ" अ " इत्यादि छह मंत्रको अठारहबार दोहरा कर बोले प्रत्येक मंत्रको बोलकर सूची घृताहुति करे । इस तरह एकसौ आठ आहुति हो जाती हैं । इसे घृताहुति कहते हैं ॥ ४९ ॥
ॐ हाँ अर्हत्परमेष्ठिन स्तर्पयामि स्वाहा ॥ ॐ हीँ सिद्ध परमेष्ठिनस्तर्पयामि स्वाहा ॥ ॐ हूँ आचार्य परमेष्ठिनस्तर्पयामि स्वाहा || ॐ हौ उपाध्यायपरमेष्ठिनस्तर्पयामि स्वाहा ॥ ॐ म्हः सर्व साधुपरमेष्ठिनस्तर्पयामि स्वाहा || अवांतरे पंच तर्पणानि ॥५०॥
“ ॐ हाँ " इत्यादि मंत्र पढ़कर मध्यमें पांच तर्पण करे । यह तर्पण हर एक द्रव्यका हो. और होम हो. चुकने के बाद किया जाता है इस लिए इसे अवान्तर तर्पण कहते है ॥ ५०
ॐ ही अग्निं परिषेचयामि स्वाहा || क्षीरेणाभिपर्युक्षणम् ॥ ५१
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यह मंत्र पढ़कर अग्निको दूधकी धार दे ॥ ५१ ॥
अथ समिधाहुतयः । ॐ हाँ ही हूँ हो म्हः असि आउ सा स्वाहा || अनेन मन्त्रेण समिधाहुतयः करेण होतव्याः ॥ इति समिधाहोमः १०८ ॥ ततः पडाज्याहुतयः पञ्च तर्पणानि पर्युक्षणं च ॥५२
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अव समिधाहुति कहते हैं " ॐ ह्राँ " इत्यादि मंत्र के द्वारा हाथसे समिधाकी एकसौ आठ आहुतिया देवें मंत्रोच्चारणभी एकसौ आठ वार करे इसके बाद पूर्वोक्त छह घृताहुतिके मंत्र पढ़कर छह घृताहुति देवे | पांच तर्पण करे और अनिका पर्युक्षण करे। अग्निके चारों ओर दूधकी धार देनेको पर्युक्षण कहते हैं ॥ ५२ ॥
१ नित्य यज्ञमें हमेशह यज्ञोपवीत बदल लेनेकी कोई आवश्यकता नहीं है नित्ययज्ञमें तो उस पुराने थज्ञोपवीतपरही जलगन्ध लगावे और नैमित्तिक यज्ञमें नया यज्ञोपवीत धारण करे ।