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त्रैवर्णिकाचार !..
सन्ध्याकाले तु सम्प्राप्ते सन्ध्यां नैवमुपासते । जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः वा चैव जायते ॥ १४१ ॥
सन्ध्या करने के जो जो समय बताये गये हैं उन उन समयोंमें जो त्रैवर्णिक संध्या नहीं करता है वह इस भवमें जीता हुआ भी शूद्रके तुल्य है और मरकर परभवमें कुत्तेका जन्म धारण करता है । भावार्थ - यह भयानक वाक्य है, इसका सारांश यही है कि त्रैवर्णिकोंको सुबह, शाम और दी पहरको संध्या करना चाहिए । बिना संध्या किये उनका यह लोक और परलोक दोनों ही व्यर्थ हैं । ग्रंथकारका तात्पर्य उन प्राणियों को अच्छे पथपर लानेका है अत एव वे इतना भय दिखलाते हैं। केवल भय ही नहीं है, किन्तु उसका नतीजा भी बुरा ही है ॥ १४१ ॥
सन्ध्याकाले त्वतिक्रान्ते स्नात्वाऽऽचम्य यथाविधि । जपेदष्टशतं जाप्यं ततः सन्ध्यां समाचरेत् ॥ १४२ ॥
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यदि संध्या करने का समय कारणवश बीत चुका हो तो विधिपूर्वक स्नान और आचमन कर एक सौ आठ जाप करे और उसके बाद सन्ध्या करना प्रारंभ करे ॥ १४२ ॥
राष्ट्रभङ्गे नृपक्षोभे रोगात सुतकेऽपि च । सन्ध्यावन्दनविच्छित्तिर्न दोषाय कदाचन ॥ १४३ ॥
राष्ट्रके विवके समय, राजाके क्षोभके समय, रोगसे पीड़ित हो जानेके समय और जन्म-मरण संबंधी सूतकके समय, सन्ध्यावंदनका विच्छेद हो जाय - सन्ध्या न कर सके तो कोई दोष नहीं है ॥ १४३ ॥
देवाद्विजविद्यानां कार्ये महति सम्भवे ।
सन्ध्याहीने न दोषोऽस्ति यत्तत्सत्कर्मसाधनात् ॥ १४४ ॥
देव, द्विज, अग्नि और विद्याके कारण यदि कोई बड़ा भारी पुण्य कार्य आ उपस्थित हो और उस समय सन्ध्या न की जा सके तो भी कोई हानि नहीं है । क्योंकि उस समय में और पुण्य कार्य साधन किये जाते हैं ॥ १४४ ॥
अथार्घ्यवितरणमन्त्रः ।
ॐ ह्रीं क्ष्वी उपवेशनभूः शुद्धयतु स्वाहा । दर्भादिना उपवेशन भूमिं मार्जयेत् ।
“ ॐ ह्रीँ क्ष्वीं" इत्यादि मंत्र पढ़कर दर्भ आदिके द्वारा बैठने की जगहका मार्जन करें ।