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सोमसेनभट्टारकविरचित
उक्तंच-स्नानं दानं जपं होम स्वाध्यायं पितृतर्पणम् ।...
नैकवस्त्रो गृही कुर्याच्छाद्धभोजनसक्रियाम् ॥ ३९ ॥ त्रैवर्णिक श्रावकगण एक वस्त्र अर्थात् सिर्फ धोती पहनकर स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय, वृषभादि पितरोंका तर्पण, श्राद्ध और भोजन इत्यादि कार्य न करें । अर्थात् ये कार्य एक धोती पहनकर तथा एक दुपट्टा ओढ़कर करे ॥ ३९ ॥ .:. .
धार्यमुत्तरीयमादौ ततोऽन्तरीयक तथा। . .
चतुष्कोणं भवेद्वस्त्रमन्तरीयं च निर्मलम् ॥ ४० ॥ पहले दुपट्टा ओढ़ना चाहिए, पश्चात् धोती पहननी चाहिए । दोनों. वस्रोंके चारों पल्ले बराबर होने चाहिए-पल्ले फटे हुए नहीं होने चाहिए। तथा उनका साफ-सुथरा होना भी आवश्यक है ॥४०॥
त्रिहस्तं तु विशालं स्याद्वयायतं पञ्चहस्तकम् । .
अधोवस्त्रं तु हस्ताष्टं द्विहस्त- विस्तरान्मतम् ॥४१॥ ओढ़नका कपड़ा अर्थात् दुपट्टा तीन हाथ चौड़ा तो बहुत बड़ा हो जाता है इसलिए दो हाथ चौड़ा और पाँच हाथ लम्बा होना ठीक है और अधोवस्त्र धोती आठ हाथ लंबी और दो हाथ चोड़ी होनी चाहिए ॥४१॥
पट्टकूलं तथा सौत्रं शुभं वा पीतमेव च । .
कदाचिद्रक्तवस्त्रं स्वाच्छेषवस्त्रं तु वर्जयेत् ॥ ४२ ॥ रेशमी वस्त्र तथा सूती कपड़े सफेद वा पीले रंगके होने चाहिए। यदि लाल भी हों तो कोई हर्ज नहीं है । इसके सिवा और और रंगके कपड़े उपर्युक्त कामोंमें काम न लाने चाहिए ॥ ४२ ॥
रोमजं चर्मजं वस्त्रं दूरतः परिवर्जयेत् ।
नातिस्थूलं नातिसूक्ष्म विकारपरिचार्जतम् ।। ४३ ॥ ऊनका अथवा चमड़ेका वस्त्र दूरसे ही त्यागने योग्य है । तथा पहनने के कपड़े न तो बहुत मोटे ही होने चाहिए और न बहुत बारीक ही होने चाहिए। किन्तु जिनके पहनने ओढ़नेसे कोई तरहका विकार पैदा न हो ऐसे होना आवश्यक हैं ॥ ४३॥ ..
लम्बयित्वा पुरा कोणद्वयं तेनैव वाससा। . . आवेष्टयेत्कटीदेशं वामेन पाचवन्धनम् ॥ ४४॥ कोणद्वयं ततः पश्चात्समीचीनं प्रकच्छयेत् । कटीमेखलिकामन्तदेशे गोप्यां प्रबन्धयेत् ॥ ४५ ॥