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त्रैवर्णिकाचार। ..
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अप्सु नोत्पीडयेद्वस्त्रं सर्वथा श्रावको द्विजः।
शुष्कं चोपरि खवायास्तद्वस्त्रं च न धारयेत् ॥ ३३ ॥ द्विज श्रावकोंको जलके भीतर कभी भी कपड़े नहीं निचोड़ना चाहिए । तथा सूखे हुए कपड़ोंको खटियाके ऊपर न रखना चाहिए ॥ ३३ ॥
शुष्ककाष्ठेपु निक्षिप्य हिराचम्य विशुद्धयति ।
प्रागनमुदगग्रं वा धौतवस्त्रं प्रसारयेत् ॥ ३४ ॥ शुष्क लकड़ीके ऊपर कपड़ेको रख देनेपर दो बार आचमन करनेसे शुद्ध होता है । किसी अच्छे स्थानमें जहाँपर पैर वगैरह न पड़ते हों या उँचे स्थानमें उन धोई हुई धोती आदि कपड़ोंको सुखावे ॥ ३४॥
नवम्यां पञ्चदश्यां तु संक्रान्तौ श्राद्धवासरे।
वस्त्रं निष्पीडयेन्नैव न च क्षारे नियोजयेत् ॥ ३५ ॥ नवीके दिन, पूर्णिमाके दिन, संक्रान्तिके रोज और श्राद्धके दिनोंमें कपड़ा निचोड़ना नहीं चालिए । तथा इन दिनोंमें खारमें भी कपड़ा न दे ॥ ३५ ॥
स्नानं कृत्वाऽऽर्द्रवस्त्रं तु मूर्ना नोत्तारयेद्गृही।
आर्द्रवस्त्रमधस्ताच्च पुनः स्नानेन शुद्धयति ॥३६॥ स्नान करके, पहने हुए कपड़ेको जो कि स्नान करनेसे गीला हो गया है, सिर पर होकर न उतारे । उसे नीचेका नीचे ही होकर उतार ले, नहीं तो पुनः स्नान करनेसे शुद्ध होता है ॥ ३६॥
प्रत्यग्दक्षिणयोः कृत्वा पुनः शौचं विधीयते । एकवस्त्रो न भुञ्जीत न कुर्याद्देवपूजनम् ॥ ३७ ।। न कुपितृकर्माणि दानहोमजपादिकम् ।
खण्डवस्त्रावृतश्चैव वस्त्रार्धप्रावृतस्तथा ॥ ३८॥ - उस गीले कपड़ेको पश्चिम और दक्षिण दिशाकी तरफ न उतारे, नहीं तो पुनः स्नान करना चाहिए । एक कपड़ा पहन कर भोजन और देव-पूजन न करे । पितृकर्म और दान, होम जप, आदि न करे । और फाड़ कर दो टुकड़े किया हुआ वस्त्र पहन कर, तथा आधा पहन कर और आधा सिर पर बाँधकर भी कोई क्रिया न करे॥३७॥ ३८॥