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• त्रैवर्णिकाचार।
: : इस प्रकार शास्त्रों में कही हुई विधिके अनुसार स्नान कर दो वार आचमन करे । पश्चात् प्राणायाम कर संकल्प करे । इसके बाद तर्पण करे ॥ ६॥
अक्षतोदकपूर्णेन देवतीर्थेन तर्पयेत् ।
जयादिदेवताः सर्वाः प्राङ्मुखश्चोपवीत्यथ ॥ ७॥ __पूर्व दिशाकी तरफ मुख कर ययोपवीत-युक्त होकर, अर्थात् बायें हाथमें जनेऊ डालकर और हाथमें अक्षत और जल लेकर देवतीर्थसे सम्पूर्ण जयादि देवतोंका तर्पण करे। उँगलियोंके अग्रमागकी देवतीर्थ संज्ञा है ॥ ७॥
उदङ्मुखो निीती तु यवसम्मिश्रितोदकैः ।
गौतमादिमहर्षीणां तर्पयेषितीर्थतः॥८॥ उत्तर दिशाकी ओर मुख कर यज्ञोपवीतको गलेमें मालाकी तरह लटका कर जव और जलके द्वारा ऋषितीर्थसे गौतमादि महर्षियों का तर्पण करे । उँगलियोंके भागको ऋषितीर्थ कहते हैं ॥८॥
दक्षिणाभिमुखो भूत्वा प्राचीनावीत्यनातपम् (१)।
तिलैः सन्तर्पयेत्तीर्थपितरो वृषभादयः॥९॥ दाक्षिण दिशाकी तरफ मुख कर, प्राचीनावीति अर्थात् दाहिने हाथमें यज्ञोपवीत डाल कर, तिलों द्वारा ऋषभादि तीर्थपितरोंका पितृतीर्थसे संतर्पण करे । अँगूठा और अँगूठेके पासकी उँगली इन दोनोंके मध्यमागका नाम पितृतीर्थ है ॥ ९ ॥
यन्मया दुष्कृतं पापं शारीरमलसम्भवम् ।
तत्पापस्य विशुध्द्यर्थं देवानां तर्पयाम्यहम् ।। १० ॥ जो मैंने शारीरिक मल द्वारा पाप किया है उस पापकी शुद्धिके लिए मैं देवोंका तर्पण करता हूँ । भावार्थ-देहशुद्धिके लिए आचमन, तर्पण, प्राणायाम आदि विषय शास्त्रोंमें स्थान स्थान पर पाये जाते हैं । इससे यह बात सिद्ध नहीं होती कि वे सब हिंदूधर्मसे ही लाये गये हैं । यदि ऐसा ही मान लिया जाय कि ये सब विषयं हिंदूधर्मके ही हैं, जैनोंके नहीं हैं तो यह बात किस आधारसे कही जाती है । यदि बिना शास्त्रोंके प्रमाणके मनमानी युक्तियों द्वारा कही जाती है तो वह युक्ति शास्त्रविरुद्ध होनेके कारण युक्ति नहीं है, किन्तु युक्त्याभास है । जो लोग इस विषयको हेय बतलाते हैं वे तो पूजा, प्रतिष्ठा, मूर्तिपूजन आदिको भी हिंदूधर्मसे आया बतलाते हैं तो क्या पूजा, प्रतिष्ठा, मूर्तिपूजा संबंधी ऋषिप्रणीत सैकड़ों शास्त्रोंको छोड़कर उनकी बात मान ली जावे ? खैर, कल्पना करो कि परीक्षित बातको मान लेनेमें क्या हर्ज है तो कहना पड़ेगा कि इसका नाम :.1 इस श्लोककी रचना खटकती है।