________________
ફર
सोमसेनभट्टारकविरत्तित
गृहस्थ जन अपने यज्ञोपवीत (जनेऊ) को गर्दनके सहारेसे पीठ पीछे लटकाकर टट्टी-पेशाव करे और वृती श्रावक बायें कानमें लगाकर टट्टी पेशाब करे। दोनों ही उसे गलेसे न निकालें ॥ २७ ॥
J
".
मूत्रे तु दक्षिणे कर्णे पुरीषे वामकर्णके । धारयेद्रह्मसूत्रं तु मैथुने मस्तके तथा ।। २८ ।।
पेशाब के समय उस यज्ञोपवीतको दाहिने कानमें और टट्टी के समय बायें कानमें टाँगना चाहिए ।' तथा संभोग करते समय मस्तक पर टाँगना चाहिए ॥ २८ ॥
अन्तर्धाय तृणैर्भूमिं शिरः प्रावृत्य वाससा । वाच नियम्य यत्नेन ष्ठीवनोच्छ्वासवर्जितः ।। २९ ।। कृत्वा समौ पादपृष्ठौ मलमूत्रे समुत्सृजेत् । अन्यथा कुरुते यस्तु यमं यास्यति सद्गृही ॥ ३० ॥
मल-मूत्र करते समय जिस जगह मल-मूत्र करना हो उस जगहको तृण (घास ) से ढक दे, अपना सिर कपड़ेसे ढक ले, किसीसे बोले नहीं अर्थात् मौन रहे, थूके नहीं, जोर जोरसे साँस न ले, दोनों पैरोंको बराबर रक्खे, और पीठको न झुकावे । जो गृहस्थ इस तरहकी क्रिया न करके अपनी मनमानी करता है वह मरणको प्राप्त होता है। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जमीन पर घास बिछाकर टट्टीपेशाब क्यों किया जाय । इसका समाधान यह है कि टट्टी और जमीनका संयोग मिलने पर जीवोंके अधिक उत्पन्न होने की संभावना है और वह जमीन पर जल्दी शुष्क भी नहीं होगी, घास पर वह जल्दी सूख जायगी और जीवोंकी उत्पत्ति भी अधिक न होगी ॥ २९-३० ॥
प्रभाते मैथुने चैव प्रखावे दन्तधावने ।
स्नाने च भोजने वान्त्यां सप्त मौनं विधीयते ॥ ३१ ॥
करते
समायिक करते समय, मैथुन करते समय, टट्टी-पेशाब करते समय, दत्तन करते समय, स्नान समय, भोजन करते समय और उल्टीके समय इस प्रकार इन सात स्थानों पर मौन ध चाहिए ॥ ३१ ॥
धारण करना
काष्ठादिनाऽप्यपानस्थममेध्य निर्मृजीत च । कन्दमूलफलाङ्गारैर्नामेध्यं निर्मृजीत च ॥ ३२ ॥
टट्टी हो चुकनेके बाद, गुदस्थानको प्रथम लकड़ी के टुकड़ेसे या पत्थर वगैरह से साफ कर लें परन्तु कन्द-मूल, फल वगैरह से साफ न करे ॥ ३२ ॥
:
शौच बैठते समय वहाँके क्षेत्रपात्रसे क्षमा करावे । उसका मंत्र यह है :
-
ओं ही अत्रस्थ क्षेत्रपाल क्षमस्व, मां मनुजं जानीहि, स्थानादस्मात्प्रयाहि, अहं पुरीपोत्सर्ग करोमीति स्वाहा ॥