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त्रैवर्णिकाचार |
पंचेंद्रिय जीवोंके मुर्दा शरीरके स्पर्श हो जानेपर बिना तेल लगाये शुद्धि नहीं होती परंतु ब्रह्मचारियों और यतिओंको तेल मर्दन करना योग्य नहीं है ॥ ९६ ॥
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: सप्ताहान्यम्भसास्नायी गृही शूद्रत्वमाप्नुयात् । तस्मात्स्नानं प्रकर्तव्यं रविवारे तु वर्जयेत् ॥ ९७ ॥
यदि गृहस्थ लगातार सात दिन तक स्नान न करे तो शूद्र तुल्य हो जाता है । इसलिए रविवारको छोड़कर स्नान अवश्य करना चाहिए ॥ ९७ ॥
अत्यन्तं मलिनः कायो नवच्छिद्रसमन्वितः ।
स्रवत्येव दिवा रात्रौ प्रातः स्नानं विशोधनम् ॥ ९८ ॥
यह शरीर अत्यन्त ही महा मलिन है, बड़े बड़े नौ छिद्रोंसे युक्त है जिनमेंसे रात-दिन घिनावने दुर्गन्ध युक्त मल, मूत्र, नाक, लार, खँखार आदि झरते रहते हैं । इस लिए प्रातः स्नान के द्वारा इसे शुद्ध करने का उपदेश है ॥ ९८ ॥
प्रातः स्नातुमशक्तश्चेन्मध्यान्हे स्नानमाचरेत् ।
स्वयं स्त्रियाऽथवा शिष्यैः पुत्रैरुद्धृतवारिभिः ॥ ९९ ॥
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जो पुरुष प्रात:काल स्नान करनेमें असमर्थ है वह, स्वयं अपने द्वारा, या अपनी स्त्री द्वारा, या अपने शिष्यों द्वारा, या अपने पुत्रों द्वारा लाये हुए जलसे मध्याह्नमें स्नान करे ॥ ९९ ॥ न स्नायाच्छूद्रहस्तेन नैकहस्तेन वा तथा । नागालितजलेनापि न दुर्गन्धेन वारिणा ॥ १०० ॥
शूद्रों द्वारा लाये हुए जलसे स्नान न करे, एक हाथसे भी न करे और अनछने तथा दुर्गन्धित जलसे भी स्नान न करे ॥ १०० ॥
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कराभ्यां धारयेद्दर्भं शिखाबन्धं विधाय च ।
प्राणायामं ततः कुर्यात्सङ्कल्पं च समुच्चरेत् ॥ १०१ ॥
अपनी चोटीके गाँठ लगा ले और दोनों हाथमें दूब पकड़ लें, इसके बाद प्राणायाम और संकल्प करे ॥ १०१ ॥
द्विराचम्य निमज्याथ पुनरेवं द्विराचमेत् ।
मन्त्रेणैव शिखां बध्वा प्राणायामं च वै पुनः ।। १०२ ॥
स्नात्वाऽथ देहं प्रक्षाल्य पुनः स्नात्वा द्विराचमेत् । पंचपरमेष्ठिपदैर्नवभिर्मार्जयेदथ ॥ १०३ ॥