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सोमसेनभहारकविरचित--
मिट्टी मिले हुए, धान्य मिले हुए, खटाई वगैरहसे मिले हुए तेलसे मालिश न करना चाहिए अन्यथा इससे अपवित्रता ही होगी ॥ ८९॥ . .
स्नानविधि। . उष्णोदकेन पश्चात्तु प्रासुके निर्मले स्थले ।
स्नानं कुर्याधथा श्राद्धो जीवबाधा न जायते ।। ९० ॥ तेल मालिशके बाद, जीव-जन्तु रहित साफ शिला वगैरहपर बैठकर गर्म-जलसे स्नान करे। स्नान बड़ी सावधानीसे करे कि जिससे जीवोंको पीड़ा न पहुँचे ॥ ९० ॥
कषायद्रव्यमिश्रेण सुवस्त्रशोधितेन वा ।
नातिस्तोकेन नीरेण स्नायाद्वा नातिभूरिणा ॥ ९१ ।। ऐसे जलसे स्नान करे जो न तो बहुत ही थोड़ा हो और न बहुत ही जियादा हो । वह उना हुआ हो या उसमें कुछ कसैला पदार्थ मिला हुआ हो ॥ ९१ ॥
पाषाणस्फालितं तोयं सन्तप्तं सूर्यरश्मिभिः । पशुभिघोतितं पादैः प्रासुकं निझरागतम् ॥ ९२॥ . रेणुकायन्त्रिभिर्जातं तथा गन्धकवासितम् ।
प्रासुकं स्नानशौचाय न तु पानाय शस्यते ॥ ९३ ।। पत्थरोंसे टकराया हुआ, सूर्यकी धूपसे संतप्त हुआ, पशुओंके पैरोंसे मथा हुआ, निर्झरोंका : बहा हुआ, रेणु और यंत्रके द्वारा प्रासुक किया हुआ तथा सुगंधि आदिक द्वारा प्रासुक किया हुआ जल स्नान और शौचके लिए प्रासुकमाना गया है । पीनेके लिए यह जल प्रासुक नहीं है ॥ ९२॥९३॥
मिथ्यादृष्टिभिरज्ञानैः कृततीर्थानि यानि वै ।
तेषु स्नानं न कर्तव्यं भूरिजीवनिपातिषु ॥ ९४ ॥ अज्ञानी मिथ्यादृष्टियोंने जिन्हें तीर्थस्थान वना रक्खे हैं बहुतसे जीवोंके नाशके कारण ऐसे तीर्थोंमें कभी स्नान न करे ॥ ९४ ॥
यदि तत्रैव गन्तव्यं कुसङ्गासङ्गदोपतः।
तस्माद्धृत्वा जलैः स्नायाद्भिनदेशे सुशोधिते ॥ ९५ ।। यदि कदाचित खोटी संगतिमें फंसकर उन तीर्थस्थानोंमें स्नान करनेके लिए चला जाय । तो वहाँसे किसी पात्र में जल लेकर दूसरे जीव-जन्तु रहित पवित्र स्थानमें बैठकर स्नान करे ॥ ९५ ॥
पञ्चेन्द्रियशवस्पर्शे विना तैलं न शुध्यति । ब्रह्मचारियतीनां तु न योग्यं तैलमर्दनम् ॥ ९६॥