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त्रैवर्णिकाचार |
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शौचस्थानसे कुछ दूर चल कर, निर्मल साफ स्थानमें बैठ कर, हाथ पैरोंको धोकर छने हुए जलसे दन्तवन करना प्रारंभ करे ॥ ५८ ॥
ॐ नमोऽर्हते भगवते सुरेन्द्रमुकुटरत्नप्रभाप्रक्षालितपादपद्माय अहमेव शुद्धोदन पादप्रक्षालनं करोमि स्वाहा ॥ १ ॥ अनेनावशिष्टेन मृदंशेन पादौ प्रक्षालयेत् ॥ यह मंत्र बोलकर बाकी बची हुई मिट्टीसे पैरोंका प्रक्षालन करना चाहिए ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं ह्रौं असुर असुर सुकुरु भव तथा हस्तशुद्धिं करोमि स्वाहा ||२॥ अनेन जलेन हस्तप्रक्षालनम् ॥
इस मंत्र पढ़कर हाथका प्रक्षालन करना चाहिए ॥ २ ॥
ॐ ह्रीं क्ष्वीं वीं मुखप्रक्षालनं करोमि स्वाहा ॥ ३ ॥ अनेन मुखप्रक्षालनम् || इस मंत्र को पढ़कर मुँह धोवे ॥ ३ ॥
ॐ परमपवित्राय दन्तधावनं करोमि स्वाहा ॥ ४ ॥ अनेन दन्तधावनं दन्तानां कुर्यात् ॥
इस मंत्र को पढ़कर दाँतोंको जलसे साफ करे ॥ ४ ॥
कुरले करना:
चतुरष्टद्विपट्द्व्यष्टगण्डूपैः शुध्यते क्रमात् ।
मूत्रे पुरीपे भुक्त्यन्ते मैथुने वान्तिसम्भवे ॥ ५९ ॥
पेशाब करनेके बाद चार कुरले करनेसे और टट्टीके बाद आठ कुरले करनेसे मुखकी शुद्धि होती है । भोजनके बाद दोसे, मैथुनके बाद छहसे और उल्टीके बाद सोलह कुरलोंसे मुख सफा होता है ॥ ५९ ॥
पुरतः सर्वदेवाच दक्षिणे व्यन्तराः स्थिताः । ऋषयः पृष्ठतः सर्वे वामे गण्डूषमुत्सृजेत् ॥ ६० ॥
पूर्वकी तरफ प्राय: सब देवोंका निवास रहता है, दक्षिण तरफ व्यंतरोका निवास हैं और सब ऋषि प्रायः पश्चिमकी ओर निवास करते है, अत: इन तीन दिशाओं में कुरला न फेंके, किन्तु अपनी बाई ओर फेंके ॥ ६० ॥
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पुनः पुनश्च गण्डूषनिष्ठीवं दूरतस्त्यजेत् ।
• प्राङ्मुखोदङ्मुखो वा हि द्विराचम्य ततः परम् ॥ ६१ ॥ 'मौनतः पुण्यकाष्ठेन दन्तधावनमाचरेत् । सुखे पर्युषिते यस्माद्भवेदचचिभाङ्गनरः ॥ ६२ ॥