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सोमसेनभट्टारकविरचित
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नमः सिद्धेभ्य इत्युक्त्वा नासास्वरानुसारतः।
अग्रपादं पुरो दत्वा शनैर्गच्छेजिनं स्मरन् ॥१६॥ इसके बाद “ नमः सिद्धेभ्य " ऐसा मुखसे उच्चारण कर नाकका जो सुर चलता हो उसी सुर तरफके पैरको पहले आगे बढ़ावे और जिनेन्द्रदेवका स्मरण करता हुआ धीरे धीरे मल-मूत्रक त्यागने योग्य स्थानकी ओर गमन करे ॥ १६ ॥
ग्राहयित्वा गृहीत्वा वा कपूर कुंकुमं तथा । उशीरं चन्दनं दूर्वाद क्षततिलाँस्तथा ॥ १७ ॥ पश्यन्नीर्यापथं मार्गे व्रजेदेवाप्रमत्तकः ।
चाण्डालशकरादीनां स्पर्शनं परिवर्जयेत् ॥ १८ ॥ तथा कपूर, केसर, आसन, चन्दन, दूब, काँस, अक्षत और तिल इन चीजोंको साथमें स्वयं ले लेवे या नौकर वगेरहके हाथमें देकर उसे साथमें ले चले। रास्ते चलते समय बड़ी ही सावधान के साथ चार हाथ आगेकी जमीनको देखता हुआ चले । और भंगी, चमार, सूअर आदि अस्वयं प्राणियों तथा अन्य चीजोंको रास्तेमें न छूवे ॥ १७-१८॥
मलमूत्रोत्सर्गस्थान। दूरदेशे महागूढे जीवकीटविवर्जिते । प्रासुके चापि विस्तीर्णे लोकदर्शनदूरगे ॥ १९ ॥ भूतप्रेतपिशाचादियक्षलौकिकदेवता-1
पूजास्थानं परित्यज्य तूत्सजेन्मलमूत्रकम् ॥ २० ॥ जो शहरसे दूर हो, गुप्त हो, जीव-जन्तुओंसे राहत हो,प्रासुक हो, खूब अच्छा लम्बाचौड़ा हो, जिसमें स्त्री-पुरुष गाय-भैंस आदिका आवागमन न हो और भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, लौकिक देवता आदिका पूजास्थान न हो, ऐसे स्थानमें बैठकर मल-मूत्रका त्याग करे ॥ १९-२०॥
दशहस्तं परित्यज्य मूत्रं कुर्याज्जलाशये ।
शतहस्तं पुरीष तु नदीतीरे चतुर्गुणम् ॥२१॥ जिस स्थानमें जलाशय, तालाब हो वहाँसे दस हाथ जमीन छोड़कर तो पेशाब करनेको बैठना चाहिए और सौ हाथ जमीन छोड़ कर टट्टी बैठना चाहिए। यदि नदीहो तो इससे चौगुनी जमीन छोड़ कर टट्टी पैशाबके लिए बैठना चाहिए ॥ २१ ॥
१ चालीस हाथ और चारसौ हाथ ।