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सोमसेनभट्टारकविरचितगुरुके उपदेशानुसार निर्मथ पदके धारण करनेको संयम कहते हैं । वह संयम संस्कारसे शुन्छ किये हुए शरीरके होने पर ही होता है ॥ ५॥
पापवृक्षस्य मूलन संसारार्णवशोषणम् ।
शिवसौख्यकर धर्म साधकः साधयेत्तपः ॥६॥ तपश्चरणके साधन करनेकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य उस तपकी अवश्य साधना कर, जो पाप-वृक्षको जड़मूलसे उखाड़नेवाला है, संसार-समुद्रको सुखानेवाला है, मोक्ष-सुखकी देनेवाला है और धर्मरूप है ॥६॥
सुखं वाञ्छन्ति सर्वेऽपि जीवा दुःख न जातचित् ।
तस्मात्सुखैषिणो जीवाः संस्कारायाभिसम्मताः ॥ ७॥ संसारके सब प्राणी मुखकी चाह करते हैं। कोई संसारमें ऐसा जीव नहीं जो दुःसकी चाह करता हो । इसलिए ये सुखके चाहनेवाले जीव संस्कारके योग्य माने गये हैं ॥ ७ ॥
कालादिलब्धिंतः पुंसामन्त शुद्धिः प्रजायते ।
मुख्यापेक्ष्या तु संस्कारो बाह्यशुद्धिमपेक्षते ॥८॥ मनुष्योंकी अन्तरंग शुद्धि तो यद्यपि काललब्धि, कर्मस्थिति काललब्धि, जातिस्मरण आदिके निमित्तसे होती है, तथापि यह मुख्य शुद्धि शरीर-शुद्धिकी अपेक्षा रखती है । और शरीर-शुद्धि बाह्यसंस्कारों (शुद्धि) की अपेक्षा रखती है ॥ ८॥
अङ्कुरशक्तिर्वीजस्य विद्यमाना तथापि च ।
वृष्टिः सुभूमिर्वातादिर्वाह्यकारणमिष्यते ॥९॥ इसीको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं । यद्यपि बीजमें उगनेकी शक्ति मौजूद है तो भी वह अपने उगनमें अच्छी वृष्टि, उपजाऊ जमीन, अनुकूल हवा, योग्य सूर्यका प्रकाश आदि वाह्य कारणोंकी अपेक्षा रखता है । भावार्थ-बीजमें उगनेकी शक्ति होते हुए भी वह इन बाह्य कारणोंके बिना नहीं उगता । ऐसे ही जीवोंमें यद्यपि सम्यक्त्व आदिके उत्पन्न होनेकी शक्ति है तो भी वह शक्ति बिना बाह्य कारणोंके व्यक्त नहीं होती । वे बाह्य कारण अनेक हैं, उनमें यह शरीर-संस्कार भी एक कारण है ॥९॥
वाह्यशुद्धि। स्नानाचमनवस्त्राणि देहशुध्दिकराणि वै । सूतकाद्यपशुध्दिश्च बाह्यशुध्दिरिति स्मृता ॥१०॥