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(२)
कालचक्र
समय सदा फिरता रहता है, अतः जैन-शास्त्रों में काल की समानता शकट के पहिये (चक्र) से की गयी है। जैनशास्त्रकारों ने इस काल को मुख्य रूप से दो विभागों में बाँटा है-एक अवसर्पिणी काल और दूसरा उत्सर्पिणी काल' । __'अवसर्पिणी-काल' उस समय को कहते हैं, जिसमें सब चीजों में-जैसे आयु, शरीर का प्रमाण, बल, पृथ्वी आदि सब में-क्रमशः न्यूनता आती जाती है। और 'उत्सर्पिणी-काल' में इन सब चीजों में क्रमशः वृद्धि होती जाती है ।
अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के छः-छः भेद हैं। और, ये बारह आरे के नाम से कहे जाते हैं। अवसर्पिणी के आरों का स्वरूप संक्षेप में निम्न प्रकार से है :
· सुषम-सुषम
इस आरा के प्रारम्भ में भरत-ऐरावत-क्षेत्र में भूमि हस्त-तल की भाँति समतल होती है । उस काल के तृरण पाँच वर्गों की मणि के समान सुन्दर लगते हैं। उस काल के मनुष्य सुख पूर्वक रहते हैं, सुख पूर्वक सोते हैं और क्रीड़ा करते हैं । वे भद्रक और सरल स्वभाव के होते हैं । उनमें राग, द्वेष, मोह,
(१) लघुक्षेत्र समास गाथा ९० (२) काललोकप्रकाश, सर्ग २९, श्लीक ४४ (३) काललोकप्रकाश, सर्ग २६, श्लोक ४५ (४) लघक्षेत्र समास गाथा ६०
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