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(११०) १ स्वप्न, २ अपहरण, ३ अभिग्रह, ४ जन्म, ५ अभिषेक, ६ वृद्धि, ७ स्मरण (पूर्व अभिग्रह का स्मरण), ८ भय, ६ विवाह, १० अपत्य, ११ दान, १२ सम्बोधन, १३ निष्क्रमण, (दीक्षा)। २८८ (इस द्वार-गाथा में भी गर्भापहार का उल्लेख आता है )
अब देवेन्द्र हरिणैगमेषि देव से कहता है, यह भगवान् लोकोत्तम महात्मा ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुए हैं ।
उनको तुम क्षत्रियकुण्डग्राम में सिद्धार्थ नामका क्षत्रिय है; उसकी भार्या त्रिशला की कुक्षि में ले जा कर रखो। २६५ ।
'ठीक है', ऐसा कहकर वह हरिणैगमेषि देव वर्षाऋतु के पाँचवे पक्ष के ( आसो बदी तेरस उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में ) तेरहवें दिन पूर्व रात्रि में गर्भ को ले जाता है । २६६
गर्भ में सुकुमार (सुखी) वह दो उत्तम महिलाओं के गर्भ में रह कर नव मास और सात दिन से अधिक समय व्यतीत होने पर.......(')। ३०३
महावीर स्वामी के गर्भपरिवर्तन की बात एक और प्रसंग से जैन-आगमों में आती है। समवायांग-सूत्र के ३२-वें समवाय में नाटक के बत्तीस भेद बताये गये हैं-"बत्तीसतिविहेण?"। इसकी टीका करते हुए अभयदेव सूरि ने लिखा है--- "द्वात्रिंशद्विधं द्वितीयोपाङ्ग इति सम्भाव्यते ।'' (समवायांग सूत्र पत्र ५४)
राजप्रश्नीय की कंडिका ८४. (पत्र १४३-१) में ३२-वें प्रकार के नाटक को बताते हुए लिखा :
१-इन प्रमाणों के साथ कुछ लोग 'अंतगडदसाओ' (एन. बी. वैद्यसम्पादित, पृष्ठ ६, अनु. १०) का देवकी के पुत्र-परिवर्तन की कथा को भी प्रमाण में दे देते हैं। पर, वह परिवर्तन गर्भ-काल में नहीं वरन् जन्म लेने के बाद हुआ था । अतः गर्भापहार के प्रमाण-स्वरूप उसका उल्लेख करना भ्रामक है।
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