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परिणाम को प्राप्त करता है, उसी तरह उसी कर्मक्षय से संसारातीत सुख को भी प्राप्त करता है ।
" सात और असात ( सुख - दुःख) सब दुःख ही हैं । उस दुःख के सर्वथा क्षीण हो जाने पर सिद्ध को स्वाभाविक सुख मिलता है । अतः, देह और इन्द्रियों के न रहने पर, दुःख और देहेन्द्रिय के अभाव में सुख होता है ।
"और, जो देहेन्द्रियजनित सुख को ही सुख माननेवाले हैं, उनको संसारविपक्ष मोक्ष को प्रमाण से साध लेने पर 'निःसुखः, सिद्ध: देहेन्द्रिया भावात् ' यह दोष होगा । संसारातीत धर्मान्तर सिद्ध सुख माननेवालों के साथ दोष की यह बात लागू नहीं होती ।
"कोई कहेगा कि, सिद्ध को यथोक्त सुख होगा, इस बात का क्या प्रमाण ? इस सम्बन्ध में मैं कहता हूँ - ज्ञान के अनाबाध होने से ही, उनको यथोक्त सुख प्राप्त होता है। यदि आप ऐसा कहेंगे तो सिद्ध का सुख और ज्ञान भी चेतन-धर्म होने से राग की तरह अनित्य होगा ।
"तुम कहोगे तपादि कष्टकारण अनुष्ठान-साध्य होने से सिद्ध के सुख और ज्ञान घट की तरह अनित्य माने जायेंगे । इसका उत्तर यह है कि, आवरण और बाधता के कारण के अभाव से, सिद्ध के ज्ञान और सुख का कभी विनाश न होने से, अनित्यता सिद्ध नहीं हो सकती और सभी वस्तुओं को उत्पाद, स्थिति, भंग स्वभाववाली होने से अनित्यता दोष लागू नहीं हो सकता ।
"और, मोक्ष के अभाव में, मुक्तावस्था में सर्वथा नाश मानने में और सुख के अभाव में 'न ह वै सशरीरस्य' इत्यादि श्रुतियां विरुद्ध हो जायेंगी ।
"कोई कहेगा कि, शरीर का सर्वनाश होने पर, नष्ट जीव खर- विषाएरूप है । उसको प्रियाप्रिय और सुख-दुःख यदि नहीं स्पर्श करते, तो इसमें दोष ही क्या है ?
"इन वेद-वाक्यों के अर्थ को तुम अच्छी तरह नहीं जानते । उसको सुनो
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