Book Title: Tirthankar Mahavira Part 1
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 415
________________ (३५२) [युग्मम्] अपूजयन् यथाशक्तितं च पुष्पफलादिभिः । पुरस्तस्य च गीतानि, जगुः केपि शुभस्वराः ॥७३ ॥ केचित्तु ननृतुः केचिदुच्चेर्वाद्यान्यवादयन । अथितोयर्थिनां केऽपि ददुः कल्पद्रमा इव ॥७४॥ कर्पूरमिश्रघुसृजलाच्छोटनपूर्वकम् । मिथः केचित्तु चूर्णानि सुरभीणि निचिक्षिपुः ॥७॥ एवं महोत्सवैरागात्पूरिणमा सप्तमे दिने । तदा चापूजयद् भूरि विभूत्या भूधवोपि नम् ॥७६॥ सम्पूर्ण चोत्सवे वस्त्र-भूषणादि निजं निजम् । आदाय काष्ठशेषं तं पौराः पृथ्व्यामपातयन् ॥७७॥ एक बार इन्द्रमहोत्सव आने पर द्विमुख राजा ने पुरजनों से इन्द्रध्वज स्थापित करने को कहा । नागरिक जनों ने एक मनोहर स्तम्भ के ऊपर श्रेष्ठ वस्त्र लपेटा । उसके ऊपर सुन्दर वस्त्र का ध्वज बांधा। उसके चारों ओर छोटी-छोटी ध्वजाओं और घंटियों से शृंगार किया । ऐसे फूल जिन पर भ्रमर आते हों, उनकी तथा रत्नों और मोतियों की माला से उसको खूब सजाया। बाजे-गाजे के साथ उस ध्वज को नगर के मध्य में स्थापित किया। फिर पुष्प-फल आदि से लोगों ने (अपने सामर्थ्य के अनुसार) उसकी पूजा की। उस ध्वज के पास कितने लोग गाने लगे, और कितने नृत्य करने लगे। कितने बाजा बजाने लगे और कितने ही कल्पवृक्ष की भांति याचकों को दान देने लगे। कितने कर्पूर-केसर-मिश्रित रंग छिड़कने लगे और सुगन्धित चूर्ण उड़ाने लगे। इस प्रकार सात दिन उत्सव चलता रहा। सातवें दिन पूर्णिमा आयी तो द्विमुख राजा ने भी उस ध्वज की पूजा की ।....... (उत्तराध्ययन सूत्र सटीक, पत्र २१०) इस प्रकरण से स्पष्ट है कि इन्द्रमह कितने उत्साह से मनाया जाता था और उसका कितना महत्त्व था। बृहत्कल्पसूत्र (भाग ६, श्लोक ५१५३) में हेमपुर नामक नगर में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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