Book Title: Tirthankar Mahavira Part 1
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 422
________________ (३५६) है ।' जिनभद्र गरिणक्षमाश्रमरण - विरचित 'वृहत् संग्रहणी' की मलयगिरि की टीका में आता है : यक्षा गम्भीराः प्रियदर्शिना विशेषतो मानोन्मानप्रमा णोपपन्नारक्तपाणिपादतलनखतालुजिह्वोष्ठा भास्वर किरीट धारिणो नाना रत्नात्मकः विभूषरणाः, ते च त्रयोदशविधाः • तद्यथा पूर्णभद्राः १, मणिभद्राः २, श्वेतभद्रा: ३, हरिभद्राः ४, सुमनोभद्राः ५, व्यतिपाकभद्राः ६, सुभद्रा: ७, सर्वतोभद्राः ८, मनुष्यपक्षाः ६, धनाधिपतयः १०, धनाहाराः ११, रूपयक्षाः १२, यक्षोत्तमाः १३ इति । २ — अर्थात् यक्ष गम्भीर होते हैं, देखने में प्रिय होते है, मानोन्मानप्रमाणोपपन्न होते हैं, उनके पारिण, पाद, तल, नख, तालु, जिह्वा, ओष्ठ रक्तवर्ण का होते हैं, किरीट धारण करते हैं तथा नाना रत्नमय आभूषणों से युक्त होते हैं । यक्ष १३ बताये गये हैं : ४ हरिभद्र, ५ सुमनोभद्र, १ पूर्णभद्र, २ मणिभद्र, ३ श्वेतभद्र, ६ व्यतिपाकभद्र, ७ सुभद्र, ८ सर्वतोभद्र, ९ मनुष्यपक्षा, १० धनाधिपति, ११ धनाहार, १२ रूपयक्ष, १३ यक्षोत्तम । इन १३ पक्षों की गणना प्रज्ञापना सूत्र सटीक (पूर्वार्द्ध) पत्र ७०-२ में भी आयी है । उत्तराध्ययन में आता है : देव दाव गंधव्वा, जक्ख - रक्खस किन्नरा । बंभयारिं नमसंति, दुक्करं जे करंति तं ॥ ' १ - चिधं कलंब सुलसे, वड-खट्टंगे असोग चंपयए । नागे तुंबरू अ ज्झए, खट्टंग विवज्जिया सरका - चन्द्रसूरि प्रणीत वृहत्संग्रहणी, गाथा ३८, पृष्ठ १०६ २- पत्र २८-२ । ३ – उत्तराध्ययन, अध्ययन १६, गाथा १६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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