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(३५८) नागपूजा का बड़ा विस्तृत विवरण ज्ञाताधर्मकथा (८, पृष्ठ ६५ में मिलता है। रानी पद्मावती बड़ी धूमधाम से यह पर्व मनाती थी। उस अवसर पर पूरे नगर में पानी छिड़का जाता था। मंदिर के निकट पुष्पमण्डप निर्मित होता था। उसमें मालाएं लटकायी जाती थी। रानी स्नान आदि करके अपनी सहेलियों के साथ मंदिर को गयीं । उसने झील में स्नान किया और भीगे कपड़े ही फल, फूल आदि लेकर मंदिर में गयीं । मूर्ति को साफ किया और धूप आदि जलाया ।
यक्षमह भगवान् महावीर के काल में यक्ष-पूजा भी होती थी। जैन-ग्रन्थों में यक्षों की गणना ८ वाणमंतर' देवों में की गयी है। 'वाणमंतर' शब्द पर टीका करते हुए संग्रहणी में आता है :-वनानामन्तराणि वनान्तराणि तेषु भवाः वानमन्तराः ....२
वनों के मध्य भाग में रहने वाले वारणमंतर होते हैं । यक्षों का देह वर्ण श्याम होता है और उनका ध्वज-चिन्ह वटवृक्ष होता
१-अटुविधा वाणमंतरा देवा पं० २०–पिसाया, भूता, जक्खा, रक्खसा किन्नरा, किंपुरिसा, महोरगा, गंधव्वा ।
-स्थानांग सूत्र सटीक, ठाणा ८, सूत्र ६५४, पत्र ४४२-२ । ऐसा ही उल्लेख उत्तराध्ययन के अध्ययन ३६, गाथा २०५ में तथा जिनभद्रगणि विरचित वृहत्संग्रहणी, गाथा ५८ (सटीक पत्र २८-१) में तथा प्रज्ञापना सूत्र सटीक, सूत्र ३८, पत्र ६६-१ (पूर्वार्द्ध) में भी
आता है। २-प्रज्ञापना सूत्र सटीक, पूर्वार्द्ध, पत्र ६६-१ । ३--जक्खपिसाय महोरग-गंधव्वा साम किनरा नीला। रक्खस किंपुरुसा वि य, धवला भूया पुणो काला
-चंद्रसूरि प्रणीत संग्रहणी, गाथा ३९, पृष्ठ १०६ ।
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